परिवर्तन स्थिति,परिवेश के साथ मन का भी
परिवर्तन स्थिति,परिवेश के साथ मन का भी

हर एक काम के लिए हम समाज को दोष देते हैं चाहे वह हमसे संबंधित हो या फिर किसी और से। बदबू कहीं से भी उठे हमारी उंगली हमेशा समाज पर ही उठती है। जबकि हम भूल जाते हैं कि हम भी उसी समाज का हिस्सा हैं जिसको हम गाली देते हैं। समाज हमें जो अधिकार देता है उसे तो हम याद रखते हैं लेकिन जो कर्तव्य हैं उसे अक्सर भूल जाते हैं। मसलन हमें यह तो याद रहता है कि समाज हमें यह अधिकार देता है कि माता पिता ने अगर हमें पैदा किया है तो वह हमारा भरण पोषण करें, हमें सही राह दिखायें, हमारे खर्चे पूरे करें, हमारे लिये विरासत छोड़े, लेकिन माता पिता के प्रति कुछ कर्तव्य भी समाज हमारे जिम्मे पर डालता है। लेकिन होता क्या है कि जैसे ही बड़े होते हैं और कुछ पैसे कमाने लगते हैं वही मां बाप जो कल तक हमारे बचपन का सहारा थे। दिन रात करके खटकने लगते हैं, और फिर निष्कर्ष निकलता है कि उनको वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाए। हमारे मन में उस समय यह बात बिल्कुल नही आती कि जिन्होने हमारे बचपन को सुरक्षित कर हमारे भविष्य की नींव मजबूत की है उन्हे अब जब कि उस नींव पर एक अदद कमरे की जरूरत है तब हम उन्हे वृद्धाश्रम की राह दिखा रहे हैं। आज हमारा समाज आदर्शवादिता की परिभाषा धन वाहन, कपड़े और मकान से तय करता है। जबकि यह सब हमारे माता पिता की देन होती है। अगर बचपन में हमारे हाथ में किताब न पकड़ाकर हमें गलत राह पर भेज देते तो क्या जिस आदर्शवादिता की ओर हम दौड़ रहे हैं, उस तरफ जा पाते ? शायद नही।


तब जाकर समझ आया कि सच में हम भारतीय संस्कारों की वजह से ही अपने हजारो साल पुरानी संस्कृति को बचाये रखने में सफल हुए। लेकिन अब जिस तरह के हालात दिख रहे हैं वे काफी खराब है। हर तरह के आंदोलनों की तरह से अब संस्कार व आदर्श आंदोलन भी समाज की एक महती आवश्यकता बन चुके है। और ये होने ही चाहिए। हमें अगर भारतीय संस्कृति व विरासत को बचाए रखना है तो हमें अपने बाहर वाले बदलाव के साथ अपने आंतरिक बदलाव की तरफ भी नजर उठाकर देखना पड़ेगा। इसके लिए हमें हर तरह के वे आवश्यक कदम उठाने होंगे जिससे कि हमें समाज में बदलाव दिखे।