Ads Top

परिवर्तन स्थिति,परिवेश के साथ मन का भी

परिवर्तन स्थिति,परिवेश के साथ मन का भी

मनुष्य इस चराचर जगत में अकेला मात्र ऐसा प्राणी है जिसकों कि भगवान प्रतिदिन कुछ न कुछ नया सीखने का मौका देते हैं। हर दिन व कुछ न कुछ नया सीखता हैं और उसके जीवन में परिर्वतन आता है। लेकिन कई बार यह परिवर्तन नकारात्मक स्थितियों में बदल जाता है। लेकिन अगर वर्तमान स्थिति के बदलाव के साथ कुछ आन्तरिक बदलाव भी आ जाए तो हमारा परिवेश बदल जाता है। हम जब छोटे होते हैं तो हमारा पूरा परिवार होता है। जहां दादी दादा, माता पिता, भाई बहन हम अपने विकास के लिए सब पर निर्भर होते हैं। लेकिन जैसे ही हम विकास की एक या दो सीढ़ी चढ़ते हैं हमारे जीवन में बाहरी बदलाव तो आ जाता है। लेकिन हम आंतरिक बदलाव से कोसों दूर रहते हैं। हम पांच सितारा होटल में जाते हैं तो बैसे को बिल के साथ टिप भी देते है, और चाहे अनचाहे उसकी तारीफें भी करते हैं। लेकिन उस मां की तारीफ कभी नही कर पाते जिसने की हमें जन्म दिया और हमारे बड़े होने तक रोज सुबह शाम खाना बनाकर खिलाती है। वह भी सिर्फ इस अहसास के साथ कि उसका बेटा भूखा न रहे और हर काम में सर्वश्रेष्ठ साबित हो।
हर एक काम के लिए हम समाज को दोष देते हैं चाहे वह हमसे संबंधित हो या फिर किसी और से। बदबू कहीं से भी उठे हमारी उंगली हमेशा समाज पर ही उठती है। जबकि हम भूल जाते हैं कि हम भी उसी समाज का हिस्सा हैं जिसको हम गाली देते हैं। समाज हमें जो अधिकार देता है उसे तो हम याद रखते हैं लेकिन जो कर्तव्य हैं उसे अक्सर भूल जाते हैं। मसलन हमें यह तो याद रहता है कि समाज हमें यह अधिकार देता है कि माता पिता ने अगर हमें पैदा किया है तो वह हमारा भरण पोषण करें, हमें सही राह दिखायें, हमारे खर्चे पूरे करें, हमारे लिये विरासत छोड़े, लेकिन माता पिता के प्रति कुछ कर्तव्य भी समाज हमारे जिम्मे पर डालता है। लेकिन होता क्या है कि जैसे ही बड़े होते हैं और कुछ पैसे कमाने लगते हैं वही मां बाप जो कल तक हमारे बचपन का सहारा थे। दिन रात करके खटकने लगते हैं, और फिर निष्कर्ष निकलता है कि उनको वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाए। हमारे मन में उस समय यह बात बिल्कुल नही आती कि जिन्होने हमारे बचपन को सुरक्षित कर हमारे भविष्य की नींव मजबूत की है उन्हे अब जब कि उस नींव पर एक अदद कमरे की जरूरत है तब हम उन्हे वृद्धाश्रम की राह दिखा रहे हैं। आज हमारा समाज आदर्शवादिता की परिभाषा धन वाहन, कपड़े और मकान से तय करता है। जबकि यह सब हमारे माता पिता की देन होती है। अगर बचपन में हमारे हाथ में किताब न पकड़ाकर हमें गलत राह पर भेज देते तो क्या जिस आदर्शवादिता की ओर हम दौड़ रहे हैं, उस तरफ जा पाते ? शायद नही। 

अब हम जिस युग की तरफ जा रहे हैं और जिसकी कल्पना कर रहे है। उस में हम तभी सुरक्षित हैं जबकि हम अपने साथ अपने माता पिता और परिवार का आदर सम्मान कर सकें। कुछ दिन पहले दिल्ली में एक सज्जन से मुलाकात हुई। विप्रो में अभी कार्यरत हैं 10 साल अमेंरिका में रहे और अब वापस दिल्ली आ गए हैं। जब मैने उनसे यह पूछा कि आज युवा अमेरिका जाने की सोंच रहे हैं तो आप वहां से भारत क्यूं आ गए। इस उनका जवाब था कि अमेरिका व भारत में सबकुछ अब लगभग एक सा हो गया है। वही रहन सहन वही खान पान वैसी ही बातें। बस एक ही चीज की अमेरिका में कमी खलती है और वह है संस्कार। सब कुछ होते हुए भी वहां पर संस्कार की कमी है। 

 
तब जाकर समझ आया कि सच में हम भारतीय संस्कारों की वजह से ही अपने हजारो साल पुरानी संस्कृति को बचाये रखने में सफल हुए। लेकिन अब जिस तरह के हालात दिख रहे हैं वे काफी खराब है। हर तरह के आंदोलनों की तरह से अब संस्कार व आदर्श आंदोलन भी समाज की एक महती आवश्यकता बन चुके है। और ये होने ही चाहिए। हमें अगर भारतीय संस्कृति व विरासत को बचाए रखना है तो हमें अपने बाहर वाले बदलाव के साथ अपने आंतरिक बदलाव की तरफ भी नजर उठाकर देखना पड़ेगा। इसके लिए हमें हर तरह के वे आवश्यक कदम उठाने होंगे जिससे कि हमें समाज में बदलाव दिखे।

Powered by Blogger.