कठिनाइयों से लड़कर जीत हासिल करने का अहसास दिलाती पिंक। पिंक नाम एक ऐसे रंग का परिचायक है जो कि हमें बेपनाह प्यार में भी समझदारी का अहसास कराती है। कुछ इन्ही भावों के साथ एक फिर सामने एक सामाजिक व्यवस्था, सोच, कुप्रथा पर चोट करते आए बंगाली सिनेमा के ख्यातिप्राप्त निर्देशक अनिरुद्ध राय चैधरी व फिल्म निर्माता रश्मि शर्मा व शुजीत सरकार।

फिल्म की शुरूआत से ही पता चलने लगता है कि यह एक ऐसी सामाजिक सोच के खिलाफ खड़ी हो रही है जहां कि हम नारी सशक्तिकरण की बात तो करते हैं पर उसी को हम सबसे ज्यादा निर्बल भी बनाते है। एक तरफ जहां हम उसे पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की स्वीकृति देते है। तो वहीं दूसरी तरफ हम उसके मन मस्तिष्क में यह विचार भरना नही भूलते कि वह एक स्त्री है। और वह पुरुषों से काफी पीछे है। खैर फिल्म की शुरूआत ऐसे रिश्तों के साथ जिन्हे आज के आधुनिक समय में हम सामाजिक समानता कहते हैं। फिर उसमें ऐसे हालात उत्पन्न होते है कि जो कल तक सामाजिक समानता का खुलकर फायदा उठाते थे आज वे एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं।
फिर शुरू होता एक ऐसा खेल जो कि घरों गाड़ियों होटलों से निकल कर सीधा पुलिस के पास से होते हुए अदालत पहुंच जाता है। फिल्म का एक पहलू अहसास कराता है कि हम आज कितना भी दम भर लें कि हम सुशासन की तरफ जा रहे हैं। लेकिन जब प्रशासक वर्ग ही नही चाहता तो कैसा सुशासन। किस तरह से एक लड़की को लगातार मिल रही धमकी को ध्यान नही दिया जाता पर एक धनाढ्य व्यक्ति का मामला जो कि सीधा-सीधा गलत है। पीछे की तारीख में जाकर दर्ज कर दिया जाता है। इस काम में उसका साथ निभाती है उसी महिला समाज के सशक्तिकरण की प्रतीक महिला इंस्पेक्टर जिसे कि हम सुपरवुमन की संज्ञा देते हैं। न्याय व्यवस्था की लचर प्रक्रिया भी सामने मुंह उठाकर खड़ी होती हैं लेकिन ऐन वक्त पर न्याय दिलाने के लिए प्रसिद्ध वकील सहगल के रूप में एक ऐसा व्यक्ति खड़ा होता है जो कि सच में महिला सशक्तिकरण व सामाजिक समानता के मायने समझता है। और इस पूरी घटना का सूक्ष्म रूप से गवाह भी है। और तब जाकर शुरु होती है कानूनी प्रक्रिया जिसका कि नकारात्मक पक्ष भी सामने आता है।

खैर सवालों जवाबों में पुरुष प्रधान समाज की सोच बाहर निकल कर आती है। कि अगर लड़की हमारे घर की है तो वह हमारी बहन है बेटी है पर अगर वह किसी और घर की है तो वह बस वासना पूरी करने का माध्यम है। सवालों में ही सवाल खड़े होते हैं कि कैसे हम जींस पहनने वाली, हंसकर बात करने वाली, लड़को के साथ देर रात तक घूमने वाली लड़कियों का चरित्र निर्धारण उनके ज्ञान, बुद्धि और समझ के अनुसार नही बल्कि केवल अपनी पूर्वधारणाओं के आधार पर करते है। न्यायालय में एक जवाब कि अगर कोई लड़की ड्रिंक करती है तो निश्चित ही वह अच्छे घर की नही है से पता चलता है कि हम विचारों में कितना पीछे हैं जबकि अगर हम अपनी विचारवान संस्कृति की तुलना विश्व से करें तो हमें पता चलता है कि हमें कितना आगे होना चाहिए। यह हमारे उस विचार को दर्शाता है कि हम पश्चिम से कपड़े, खाने, गाड़ियां, जीवनशैली तो अपना लिए पर हम आज भी अपनी मानसिकता को ऊपर उठाने में नाकामयाब रहे हैं।

फिल्म युवावर्ग की उस सोच पर करारा प्रहार करती है जहां कि वे लड़की को बस उपयोग की वस्तु समझते हैं। अंततः फिल्म का समापन आम फिल्मों की तरह ही होता है। लड़कों को सजा मिलती है। लेकिन फिल्म के बहाने भारतीय समाज में महिला सशक्तिकरण को लेकर चिल्लाने वाले लोगों को भी सीख मिलती है कि बस चिल्लाने से कुछ नही होगा, सच में बदलना है पहले मानसिकता बदलो। फिल्म को काफी सही तरीके और आम बोलचाल की भाषा में फिल्माया गया है। जिससे कि आम जनमानस को पूरी कहानी और फिल्माने को उद्देश्य अलग न हो। फिल्म पूरे समय हमारे इर्द गिर्द ही घूमती रहती है।