मीडिया की भूमिकाः मिथक व सच
भारत में पत्रकारिता की शुरूआत मिशन के रूप में की गई। ताकि यह लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करा सके। और उनके अन्तरमन में अंगे्रजी शासन से मुक्त होने का आत्मभाव पैदा कर सके। इस उद्देश्य के साथ शुरू हुई पत्रकारिता ने अपने लक्ष्य को पूरा किया, देश आजाद हुआ। आजादी के बाद बहुत सारी चीजें बदली और उसी बदलाव की जद में पत्रकारिता भी आयी और इसका नया नामकरण मीडिया हुआ जो अब एक व्यवसाय में बदल चुकी थी। धीरे-2 मीडिया आगे बढ़ता गया और वैश्वीकरण के बाद तो इसने क्रांति ला दी। लेकिन इसी के साथ इसके सकारात्मक व नकारात्मक पक्ष पर चर्चा शुरू हुई। लोग पीत पत्रकारिता की बात करने लगे। मीडिया के पार्टी समर्थक होने की चर्चा होने लगी।
सकारात्मकता का अर्थ केवल यह नही होता कि सत्य को छुपाकर बस ऊपर ही ऊपर चर्चा करें। आम जनता के दुःखों, उनके खिलाफ हो रहे हर अन्याय चाहे वह सामाजिक, आर्थिक हो को सबके सामने लाना भी सकारात्मक पत्रकारिता का एक तरीका है। आज भारत में मीडिया पर लगातार आरोप लग रहे है। कि अखबार, टीवी, रेडियो सब कुछ व्यापारियों के हाथ में है। पत्रकारों पर बिकने के आरोप लगे। हम पत्रकारिता में पचास तरह की नकारात्मकता खोज लाए लेकिन क्या कभी हमने इसमें सकारात्मक चीजें देखन की कोशिश की। हम बस देश के शीर्ष अखबार व चैनल पर सकारात्मकता ढूंढते रहते है। पर खबर लहरिया जैसे ग्रामीण परिवेश वाले और ग्रामीण समाज की अच्छी व बुरी चीजें सामने लाने वाले चैनल को जो कि लोगों की आवाज को लगातार राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा रहा है, कभी देखने की कोशिश की।
सच तो यह है कि लोगों के बहकावे में आकर हम ध्यान नही दे पाते और एक दो चैनल व अखबारों को देखकर हम एक लाख से ज्यादा अखबारों व सैकड़ों रेडियों व टीवी चैनलों और लाखों वेबसाइटों का भविष्य और अपना उनके प्रति नजरिया अपना लेते हैं। हम अगर बात करें इंटरनेट मीडिया की तो आज तक, अमर उजाला, दैनिक भाष्कर, दैनिक जागरण, पत्रिका की वेबसाइट सब ने देखी और उसमें दिखाए जा रहे कंटेंट पर उंगली उठा रहे हैं पर उनमे से कितने हैं जिन्होने सीजी नेट स्वरा, द् बेटर इंडिया, इंडिया वाटर पोर्टल जैसी वेबसाइट पर जाकर खोज की हो। महापुरुषों द्वारा की गई बात कभी असत्य नही होती कि सब कुछ संसार में समाहित है, जरूरत है तो बस खोज करने की और विचार करने की कि जैसी इच्छा जरूरत व विचार रखेंगे वैसी ही चीजें आपके हाथ लगेंगी। गलती मीडिया की नही हमारी है।


हमें बुराई में भी अच्छाई ढूंढने की आदत डालनी होगी तभी कोई बात बनेगी। अन्यथा बुराई तो सब जगह व्याप्त है। सकारात्मकता और जागरूकता के क्षेत्र में अगर मीडिया अग्रणी भूमिका न निभाता तो पोलियो, स्वाइनफ्लू जैसी महामारियों से हम शायद अब भी न उबर पाते। मीडिया में अगर चालीस प्रतिशत नकारात्मकता है तो साठ प्रतिशत सकारात्मकता भी है।
