चाचा-भतीजे की रार / थमी यूपी की रफ्तार

किसी ने सच कहा है कि बाप हमेश बाप होता है लेकिन वहीं कुछ जगह यह भी सुना होगा कि जब बाप के पैरों के जूते पुत्र के पांव में आने लगें तो बाप को अपनी बागडोर पुत्र के हाथों में सौंप देनी चाहिए। खैर यह तो बस कुछ मुहावरें हैं लेकिन वर्तमान में ये भारत के सबसे ज्यादा जनंसख्या वाले राज्य उत्तरप्रदेश पर सही बैठ रहा है, जहां पर यदुवंशी शासन सत्ता की बागडोर संभाल रखे हैं और पिछले पांच वर्षों से पिता-पुत्र-चाचा-भतीजे की आपसी लड़ाई ने प्रदेश को हाशिये पर ढकेल दिया है।
कैसे बदला सपा का भाग्य
80 के दशक में उत्तरप्रदेश के प्रसिद्ध पहलवान नत्थू सिंह इटावा में यादव परिवार के युवा मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक गुरु बने और क्षेत्रीय स्तर पर जयप्रकाश नारायण व डाॅ. राम मनोहर लोहिया के समाजवाद के आदर्शों पर मुलायम सिंह यादव ने भाई शिवपाल सिंह यादव के साथ मिलकर समाजवादी पार्टी की स्थापना की। पार्टी स्थापना के कुछ समय बाद ही अपने मूल उद्देश्य से भटक गयी और अपराधियों को प्रश्रय देने के कारण इस पर सवाल उठने शुरू हो गए। लेकिन तमाम गतिरोधों के बावजूद भी पार्टी की साइकिल दौड़ने लगी। पिछले 15 सालों से कभी साइकिल तो कभी हाथी ही सत्ता की वाहक बन सकी। कुछ समय के लिए प्रदेश में कमल का भी परचम लहराया लेकिन उसके बाद लगातार मुरझाया ही रहा। वर्ष 2007 में बसपा जो कि दलित चेहरों और हितों के साथ स्थापित हुई की सरकार बनी जिसमें बसपा सुप्रीमो मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी। शासनकाल काफी शानदार रहा लेकिन हरिजन एक्ट व ब्राह्मण-ठाकुर विरोधी नीतियों और विभिन्न योजनाओं में हुए घोटालों के कारण पार्टी व मुख्यमंत्री की चहुंओर बुराई होने लगी।
अखिलेश का उदय

पांच साल पूरे हुए लेकिन सत्ता के मद में चूर हाथी ने फिर वही गलती की जो वह अक्सर करती थी। सामान्य वर्ग के ब्राह्मण व ठाकुरों के लगभग 80 टिकट बसपा सुप्रीमों ने काट दिये। इस फैसले से हमलावर सपा को एक नया दांव मिला। पार्टी ने अपने अपराधी व गुण्डाराज वाली छवि से बाहर आने के लिए पार्टी के युवा नेता व सपा प्रमुख के पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार व पार्टी का चुनावी चेहरा बनाया। अपनी नीतियों व युवाओं को लुभाने वाले एजेंडे के कारण पार्टी को बहुमत मिला और वर्ष 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा की साइकिल ने प्रदेश की सत्ता का वाहन बनना स्वीकार किया।
शुरुआत एक अघोषित युद्ध की

फिर यहीं से पार्टी व प्रदेश के लोकतंत्र में उठापटक की लड़ाई शुरू हुई। कहावत उल्टी पड़ गई। बाप ने सत्ता की डोर तो अपने पुत्र को सौंप दी लेकिन उसकी चाबी अपने पास रखी। चूंकि जब तक मुलायम सिंह यादव के प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने का चलन था तब तक तो पार्टी में कोई गतिरोध नहीं रहा। लेकिन बदलते समय के साथ अपने पुत्र को राजनीति में स्थापित करने की उनकी चिंता किसी से छिपी नहीं रही। खैर, मुख्यमंत्री तो अखिलेश यादव बन गए लेकिन उनके आस-पास पार्टी के वरिष्ठ व अनुभवी नेताओं की ऐसी दीवार खड़ी की गई कि जब भी उन्हांेने बाहर झांकने की कोशिश की हर बार एक तगड़ी डांट पड़ी। दरअसल राजनीति में नवजात होने का तमगा हमेशा उनकी राह में रोड़े अटकाए रहा। पार्टी में वरिष्ठता के आधार पर देखा जाए तो मुलायम सिंह यादव के बाद प्रदेश में दूसरे नंबर पर तैयार खड़े संगठन के संवाहक व मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनना चाहिए, लेकिन पुत्र मोह ने सपा सुप्रीमों को भटका दिया लेकिन फिर भी उन्होंने परिवार को कमजोर नहीं पड़ने दिया। परिवार की पूरी दीवार पुत्र की रक्षा में खड़ी कर दी। लेकिन शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जो दीवार रक्षा के लिए खड़ी की है, वही पुत्र के गले की फंास बन जायेगी। लेकिन इस फांस के जिम्मेदार खुद सपा सुप्रीमों ही थे। अखिलेश के हर सही-गलत फैसले पर अपना निर्णय सुनाकर उन्हांेने अखिलेश के राजनीति में नवजात होने पर मुहर लगाकर इस की पुष्टि कर दी। खैर, बहुत दिनों से अंदर ही अंदर उबल रहे लावे ने अखिरकार ज्वालामुखी का रूप लिया और खनन मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति व राजकिशोर के बर्खास्तगी के रूप में फट पड़ा। दोनों मंत्रियों के निलंबन ने एक बार फिर अखिलेश को प्रदेश की जनता के मनमस्तिष्क में ईमानदार साबित किया। लेकिन सपा प्रमुख ने उलटफेर की राजनीति कर सरकार में मुख्यमंत्री की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिये।
समस्या परिवार बचाने की

हमेशा से ही यूपी की राजनीति की विडम्बना रही है कि जब-जब सपा सत्ता में आयी है अपराधियों के हौसले बढ़े हैं। अखिलेश सरकार में भी सीएमओ को अगवा करने, सीओ की हत्या, मुजफ्फरनगर दंगे और अंततः मथुरा में शासन पर गुण्डाराज के भारी पड़ने जैसे मामले सामने आये। अखिलेश व शिवपाल की लड़ाई सरकार बनने के बाद नियुक्तियों को लेकर शुरू हो गई। चूंकि शिवपाल पार्टी के वरिष्ठ नेता होने के साथ-साथ एक कुशल संगठन संचालक भी हैं और प्रदेश में उनके वफादार नौकरशाहों की कमी नहीं है। पार्टी में युवा नेताओं को छोड़कर सबके मन में यही भाव रहा है कि सत्ता तो अखिलेश के नाम पर है पर उसकी चाबी किसी और के हाथ में है। दरअसल दुर्गाशक्ति नागपाल के नेतृत्व में जब अवैध खनन का सबसे बड़ा मामला उजागर किया गया तभी मुख्यमंत्री को एक कड़े फैसले की आवश्यकता थी लेकिन मुख्यमंत्री ने वहां एक ईमानदार अफसर का साथ देने के बजाए उसे निलंबन का पुरस्कार दिया। तब भी प्रदेश में खनन माफिया के खिलाफ कार्यवाही की आवाज उठी लेकिन मुख्यमंत्री ने ध्यान नहीं दिया। मुलायम सिंह यादव ने शुरुआत में तो खुली छूट दी लेकिन जब उन्हें लगा कि संगठन की दीवार को पार करने के लिए नवजात ने अब पूर्ण पुरुष रूप धारण कर लिया है तो उन्होंने मुख्यमंत्री को सरेआम डांटना फटकारना शुरू कर दिया। लेकिन इस फटकार का जितना असर मुख्यमंत्री ने महसूस किया उससे ज्यादा कहीं उत्तरप्रदेश की आम जनता ने किया। खैर बात यहां आकर अटकती है कि आखिर इस तनातनी की असली वजह क्या है। यहां यह बात निकल कर सामने आती है कि मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी के बेटे की खनन कंपनी है और यूपी में हो रहे सरकारी खनन के अधिकतर काम इसी कंपनी के नाम हैं और अंदरखाने की खबर यह भी है कि इस कंपनी के नाम पर अवैध खनन का धंधा जोरों पर है। इसी का परिणाम यह हुआ कि जब खनन मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति पर बात आयी तो पूरा परिवार फंसता नजर आया और गायत्री प्रसाद प्रजापति के शुभचिंतक माने जाने वाले सपा सुप्रीमों के भाई शिवपाल सिंह यादव खुले तौर पर उनके सहयोग में आ गए।
विकास की रफ्तार अखिलेश के हथियार
खैर जब से प्रदेश में सपा की सरकार बनी तब से अखिलेश यादव ने प्रदेश में विकास की गंगा को बैराज से मुक्ति दिलाने के लिए लैपटाॅप, आईटी हब, मुख्यालय जोड़ो, मेट्रो, स्टेडियम, गोमती सौंदर्यीकरण, कौशल विकास योजना, आगरा लखनऊ एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाओं की शुरूआत की और धीरे-धीरे आगे बढ़े। लेकिन अक्सर हर योजना में गतिरोध उन्हें अपनों से मिले, जीत गये पूरे प्रदेश से और हार गए अपने घर से जैसी कहावत सिद्ध साबित हुई।
पार्टी पस्त विरोधी मस्त

खैर आगे आने वाले चार महीने अखिलेश यादव को क्या नया अनुभव दिलाते हैं यह तो बस कयास लगाए जा सकते हैं पर एक बात सत्य है कि पहले से ही सत्ता के हिचकोले खा रही सपा के पास लोकसभा चुनाव 2014 के बाद अखिलेश यादव को स्वतंत्र काम करने देकर अपनी डूब रही लुटिया को बचाने एक अंतिम जो तीर बचा था वह उसे भी तोड़ चुकी है। और उसकी इस गलती का खामियाजा स्वयं अखिलेश यादव को भी उठाना पड़ेगा। लेकिन इसका सीधा सीधा फायदा भाजपा, बसपा और कुछ हद तक कांग्रेस को मिलेगा। लेकिन अंतिम फैसला तो प्रदेश की जनता के हाथ में है। जो अभी भी अखिलेश यादव को ईमानदारी का तमगा दे रही है। खैर यह सारी बातें तो आने वाले विधानसभा चुनाव के समय में तय की जायंेगी लेकिन अभी जो उठापटक चल रही है उससे यूपी में विकास की गंगा पर एक और बांध बंध चुका है जिसका प्रभाव आने वाले कुछ महीनों से दिखाई देने लगेगा।