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इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए...


कहते हैं कि जब अंधकार घना हो जाता है तो प्रकाश का एक कण भी पूरे चराचर जगत को रोशन कर देता है। अंधकार में डरने वाले लोगों के लिए यह एक आशा की तरह होता है। और इसकी सख्त जरूरत होती है, खासकर तब जब कि अधेरा घना हो और परिस्थितियां आपके हाथ से निकलती जा रही हों। हमारे देश में भी कालाधन के नाम पर एक घना अंधेरा फैला और लगातार फैलता रहा। इसका प्रभाव इतना गहरा हुआ कि इससे ‘समाजवाद’ जिसको कि हमारे देश के संविधान महत्वपूर्ण स्थान दिया गया, जिसके बल पर हमने दशकों से चले आ रहे कंपनी के शासन को खत्म कर अपना स्वतंत्र शासन चलाया। उस पर प्रहार करना शुरू कर दिया। हमारा विश्वास, हमारी मानसिकता को समाजवाद से सीधे पूंजीवाद की ओर मोड़ दिया। फिर पूंजीवाद और समाजवाद में एक न रुकने वाला संघर्ष शुरू हुआ जो अब भी जारी है। आर्थिक असमानता से परिपूर्ण भारतीय समाज में व्याप्त कालेधन वाले राक्षस रूपी अंधेरे को लेकर हमारी केन्द्र सरकार शुरूआत से ही कई सारे फैसले ले चुकी है। कुछ फैसलों को असर भी हुआ और फलस्वरूप अभी कुछ महीने पहले ही लगभग 65 हजार करोड़ की राशि लोगों ने स्वयं घोषित की। लेकिन सरकार को पता था कि अभी भी काफी सारा माल दबा पड़ा है। और इसी अधेरे को संपूर्ण तरीके से प्रकाश में परिवर्तित करने को लेकर केन्द्र सरकार ने 8 दिसम्बर की रात को एक ऐसा फैसला लिया जिसने कि सबको बिस्तर और सोफे से उठाकर एटीएम व बैंकों की लाइन में लगा दिया। यह एक ऐसा फैसला था जिससे कि पूरे देश में एक सटीक शांति छा गई। कुछ चंद लोगों के अलावा कहीं कोई धरना, प्रदर्शन, हंगामा नही। रात दिन कतार में खड़े रहने के बाद भी लोगों के भाव यह बता रहे हैं कि अगर अंधकार को कोई खत्म करने के लिए आगे आ रहा है तो हम उसके साथ हैं। 

समाजवाद बनाम पूंजीवाद

खैर आम जनता की जो प्रतिक्रिया थी वह एक दम अलग थी लेकिन जो असल बात है कि समाजवाद और पूंजीवाद की लड़ाई का एक नया रूप निकल कर सामने आया। वह यह था कि समाज में तो सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है लेकिन पूंजीपतियों की सांस अटक गयी है। सबसे ज्यादा नुकसान कालेधन को कैश के रूप में रखने वालों को हुआ है। नोटबंदी का असर नेताओं पर सबसे ज्यादा हुआ और परिणाम यह निकल कर आया कि मायावती जैसी नेता जो अपने को दलितों के मसीहा मानती हैं और मनमोहन सिंह जैसे लोगों को राज्यसभा में बोलना पडा़। ध्यान देने वाली बात है कि यही मायावती हैं जो कि यह बात करती है समाज में समानता आनी चाहिए और रही बात मनमोहन सिंह की तो लगता नही कि राज्यसभा में बोला गया वक्तव्य उनका अपना था। आम लोग चुपचाप अपना काम चला रहे हैं। लेकिन ये चंद पूंजीपति उन्हे सही काम करने नही देना चाहते। खैर यह बात सौ प्रतिशत सही है कि पूंजी और समाज का रिश्ता अटूट है दोनों एक दूसरे के बगैर नही रह सकते लेकिन केवल पूंजी को या केवल समाज को बढ़ावा देना कहीं की होशियारी नही है। दोनो में समानता नही होगी तो हमारा हाल भी ज्यादा दिन अच्छा रहने वाला नही है।

 मीडिया और राजनीति

मीडिया को हमारे समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। और प्रसिद्ध लेखकर बिपिन चन्द्र अपनी पुस्तक आजादी के बाद का भारत में कहते हैं कि जब किसी लोकतंत्र में विपक्ष कमजोर भूमिका में आ जाये तो यह जिम्मेदारी मीडिया को सम्हाल लेनी चाहिए। आम चुनाव 2014 में विपक्ष का अस्तित्व खत्म होने को आया। लेकिन फिर भी गठबंधन में विपक्ष का भी निर्माण हो गया। लेकिन विपक्ष का अर्थ मीडिया कहीं और ही लेकर ज रहा है। आज भारतीय मीडिया पक्ष व विपक्ष में बंट गया है। कोई भी बीच वाली बात नही कर रहा है। जो कर रहे हैं वे इतने कम हैं कि पता ही नही चल रहा है। जबकि मीडिया को तो चाहिए कि इस महाअभियान में वह सरकार व लोगों का प्रोत्साहन करे। सरकार को घेरने के तो कई सारे मौके आते हैं लेकिन वह अपनी भूमिका को बस पक्ष व विपक्ष तक ही सीमित कर चुका है। ऐसे मौकों पर जबकि देश कोई बड़ा बदलाव होता है तो मीडिया वहां पर अपनी प्रशंसा को पाने के चक्कर में पक्ष विपक्ष में बंट जाता है।

नोटबंदी के कारण व प्रभाव 

केन्द्र सरकार के अचानक से बड़े नोट बंद करने के ऐतिहासिक फैसले का सबसे बड़ा प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है इससे एक ही समय में एक साथ भारतीय अर्थव्यवस्था से तीन से चार लाख करोड़ का काला धन बेकार हो गया। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार भारतीय बाजार में बड़े नोटों की भागीदारी लगभग 87 प्रतिशत है। विमुद्रीकरण के फैसले के बाद लगभग पन्द्रह लाख करोड़ रुपये की मुद्रा बाहर हो गयी। नोटबंदी का सबसे बड़ा कारण है कि भारत की जीडीपी लगभग 138 लाख करोड़ रुपये है जिसका लगभग ग्यारह फीसदी रियल स्टेट से आता है और सबसे ज्यादा कालाधन यहीं पर खपाया जाता है। इसके अलावा यह भी एक तथ्य है कि अगर समानन्तर नकदी चल रही होती हैए तो नुकसान देश की अर्थव्यवस्था का ही होता है। 

सरकार का कदम

आलोचना, विपक्ष के विरोध के बावजूद भी सरकार अपने कदम पीछे खींचने के बजाय और मजबूत करती जा रही है। नित नये नियम बनाये जा रहे हैं ताकि आम जनता को राहत हो सके। और करचोरी करने वाले व कालाधन को खपाने में लगे लोगों पर रोक लग सके। सरकार के फैसले की आलोचना भी हो रही है। सरकार लोगों तक कैश पहुंचा रही है। वह लोगों को डिजिटल साक्षरता के प्रति जागरूक कर रही है। वह कैशलेश देलदेन को बढ़ावा दे रही है। बैंक पूरी मुस्तैदी के साथ अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं।  

 समस्याऐं  


सबसे बड़ी समस्या तो यह खड़ी हो गयी कि भारतीय लोग अपनी आदत के अनुसार जितनी जल्दी हो सके नोट बदलवाने के लिए कतारबद्ध हो गए। एटीएम धोखा देना शुरू कर गये। हलांकि बैंक नये नोट दे रहे हैं। लेकिन सोंचने वाली बात है कि सवा करोड़ की आबादी वाली जनसंख्या में दो लाख एटीएम कब तक खड़े रहेंगे। सरकार के इस फैसले की टाइमिंग पर सवाल उठा रहे हैं। अभी रबी की बुआई का समय है। किसानों को रुपयों की जरूरत होती है। शादी ब्याह का मौसम है। सरकार डिजिटल साक्षरता की बात कर रही है लेकिन अभी भारत में सिर्फ तीस करोड़ लोग ही इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं। अभी भी लोग कैशलेस होने की जगह पर कैश को साथ रखना पसंद करते हैं।

हमारा कर्तव्य  

 खैर उपरोक्त जितनी भी बातंे हैं सब मीडिया, राजनीति, समाजवाद, पूंजीवाद को बढ़ावा देती हंै। ये एक दूसरे की खिंचाई भी करते हैं, एक दूसरे के पूरक भी हैं लेकिन वर्तमान हालात में सरकार जिस मजबूती के साथ खड़ी है उससे साफ सिद्ध होता है कि वह अपने फैसले से पीछे हटने वाली नही है। लेकिन सोंचने वाली बात यह है कि अगर हम भारत के नागरिक है। हमारे भीतर सच में देशभक्ति की भावना हिलोरे मार रही है। तो वर्तमान समय की परिस्थिति को देखते हुए हमें सरकार का सहयोग करना चाहिए न कि पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर बस सरकार की आलोचना करनी चाहिए । मानव का पूरा जीवन प्रयोगों पर निर्भर होता है। इस फैसले को भी प्रयोग के तौर पर देखा जाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि 1978 मेें भी यह कवायद की गयी थी लेकिन उसका कोई लाभ नही हुआ। ऐसे लोगों को तब की और अब की जागरूकता, शिक्षा, व्यवस्था, आर्थिक स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल करनी चाहिए।


हमें आज यह समझने की आवश्यकता है कि जब हम स्वयंहित से जुड़ा कोई फैसला जल्दी नही ले पाते तो यह तो देशहित से जुड़ा फैसला लेने से पहले सोंचना पड़ताछ है। भविष्य में होने वाले फायदे के लिए तो लोग पूरी जिंदगी दांव पर लगा देते है हमें तो सिर्फ कतार लगानी पड़ रही है। कुछ दिन कतार में ही बिता लेने से क्या हो जायेगा। अंतिम बात यह है कि आम जनता प्रधानमंत्री को शेर मानती है तो उसे यह पता होना चाहिए कि शेर जब एक कदम पीछे लेता है तो वह कई कदम आगे छलांग लगाता है और तेज झपट्टा मारता है। अब अगर हमें कालाधन जैसे सुदृढ़ राक्षस को जड़ से उखाड़ना है तो हमें इसके लिए झपट्टा कसकर मारना होगा और चोट तगड़ी करनी होगी।




फोटो साभार: depositphotos.com   
                         Vishvatimes 
                               NRI


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