फिसलती जुबान बदलते मुद्दे
फिसलती जुबान, बदलते मुद्दे...
हमारे यहां पर एक कहावत बहुत आम है...जबान संभाल के बात करना। अब आप सोंच में पड़ जाते हैं कि आखिर ऐसा क्यूं बोल रहा है। जबकि झगड़ा हाथापाई के साथ खत्म हो जाना चाहिए। पर आप देखते होंगे इस शब्द के इस्तेमाल से परिणाम बदल जाते हैं। लोगों के रास्ते बदल जाते हंै। यह शब्द आग में घी की तरह से काम करता है। विपक्षी हो या प्रतिद्वंदी, इस शब्द को सुनते ही अपना आपा खो बैठता है। फिर बात औकात पर आ जाती है। फिर चाहे जान ली जाय या दी जाय, फैसला होकर रहता है। खैर ये तो हुई शब्द के अर्थ की बात अब काम की बात करते हैं, तो इस समय यूपी, उत्तराखण्ड, गोवा, पंजाब और मणिपुर इन चार राज्यो में चुनाव चल रहे है। जुबान फिसलने के मामले में हमारे देश के नेता विश्व में सर्वोपरि स्थान रखते हैं।


दीक्षित को यूपी में लाया गया। और नारा दिया गया ‘27 साल यूपी बेहाल’ लेकिन किस्मत अगर साथ न दे तो सब बेकार हो जाता है। सीएम बनने के पहले ही उनका सपना टूटा और धरातल पर अखिलेश और राहुल दोस्त बन चुके थे। जिस जुबान से यह नारा दिया गया था, अब वही जुबान मीडिया के माध्यम से उनके पीछे पड़ी है। और यूपी के ये 46 साल और 43 साल के नौजवान लड़के सामना कर रहे हैं। खैर बात सही भी है। अगर 66 साल के हमारे मोदी जी खुद को जवान बता सकते हैं तो ये तो लड़के हैं ही।
अब फरवरी माह से चुनाव शुरू हो गये। चुनावों के शुरू होने के बाद तो जैसे जुबान फिसलने की होड़ लग गयी। यूपी चुनावों को पहला चरण शुरू हुआ। इसमें अधिकतर सीटें पश्चिमी यूपी की थी। इस समय सबके एजेंडे में दंगे पलायन और गन्ना किसानों के बकाये से संबंधित नारे और बातें थी। बात सही भी थी इन मुद्दों से वैसे तो पूरा यूपी परेशान रहता है। लेकिन पश्चिमी यूपी कुछ ज्यादा ही परेशान रहा। नेताओं ने सीधे लोगों की दुखती रग पर हाथ रखा। अब दूसरे चरण के चुनाव आये सांप्रदायिक तनाव, बेरोजगारी, गरीबी, किसानों की समस्यायें थी। इसमें भी जोर आजमाइश हुई। कुनबों, धन्नासेठों, यूपी के बुरे दिन, और युवाओं के गठबंधन पर बात हुई। तीसरे चरण के चुनाव में भी बेरोजगारी, गरीबी मुख्य मुद्दे रहे। लेकिन जुबानी जंग में पिता-पुत्र की लड़ाई, पार्टी की खिल्ली उड़ाना, आदि मुद्दे आ गए।
विकास के वादों के साथ चुनावों में उतरी पार्टियों का प्लेन अब विकास के रनवे के बजाय एक दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले मुद्दों पर दौड़ पड़ा। इसके बाद आया चैथा चरण मुख्य मुद्दे सूखा व किसानों का कर्ज रहा। लेकिन जुबानी जंग में मुद्दे गायब रहे और बात संप्रदायिकता और बाहरी बनाम भीतरी पर आ गई। इस बीच चुनाव में एक अहम कड़ी माने जाने वाले अखिलेश यादव का गदहों पर दिया गया बयान आ गया। जितना तूल इस बयान ने पकड़ शायद गाय के मुद्दे भी इतना तूल नही पकड़ पाये। अब बात पूर्वांचल की आयी पांचवे चरण के चुनाव की। चूंकि पूरा पूर्वांचल विकास के पथ पर अग्रसर है। तो मुख्य मुद्दे जो आपराधिक प्रवृत्तियों से जुड़े थे, गायब कर दिये गये और बयानबाजी में मुख्य मुद्दो में नकल, नफरत और नकदी छाए। विकास से शुरू हुई बात अब हिंदू बनाम मुस्लिम और दीवाली बनाम होली में बदल गयी।
खैर मीडिया अभी भी इन मुद्दों को लेकर अटकलों के दौर से गुजर रहा है। कुछ कहते है भाजपा की सरकार बनेगी। कुछ कहते हैं मुकाबला त्रिकोणीय है। सब अपनी जगह सही है। क्यूंकि यूपी की एक खास बात है कि वहां पर लोगों का दिमाग बटन और ट्रिगर दबाने से पहले बदल जाता है।
अब इस महापर्व में जो बात आती है वह यह है कि हम सरकार क्यूं चुनते हैं? विकास, रोजगार, आर्थिक उन्नति के
लिए या फिरा इन नेताओं की फर्जी बयानबाजी के लिए। केवल यूपी की बात करें तो 2013-14 के दौरान यहां राष्ट्रीय विकास की दर 5.1 रही। हलांकि इस बार के चुनावों में शुरूआत में तो विकास, बेरोजगारी, गरीबी, सूखा की बात की गयी लेकिन जैसे जैसे नेताओं के बयान बदलते गए। बात पलटती गयी। फलस्वरूप टिकट वितरण के समय भाजपा में उभरा आक्रोश धीरे-धीरे शांत हो गया। 