कश्मीरियत का चोला और पत्थरबाज बनती संस्कृति
कश्मीरियत का चोला और पत्थरबाज बनती संस्कृति

अस्सी के दशक के पूर्व जिस घाटी में बुलबुल शाह, शाह हमदान द्वारा सिखाई गयी इस्लामी संस्कृति के साथ हिंदू संस्कृति का लगातार प्रवाह होता था। धर्मनिरपेक्षता की बातें जहां साझा लगती थी। वहां से आज कश्मीरी पंडितों को दूध में से मक्खी की तरह से निकाल कर फेंक दिया गया है। फलतः पूरी घाटी कश्मीरी पंडितों से खाली हो चुकी है। उस समय संस्कृति की दरिया के दो किनारे थे। एक था शैव मतावलंबियों का हिंदू कश्मीर दूसरा सिकंदर बुतशिकन का कश्मीर। सिकंदर वह नाम है जिसने बलपूर्वक कश्मीरी पंडितों को मुसलमान बनाया और न मानने वाले लाखों का कत्ल किया। इन दोनो सीमाओं के बीच साझा संस्कृतियों की राह को कश्मीरियत के नाम से नवाजा गया। लेकिन वक्त की नजाकत देखिए आज वे सूत्र कमजोर पड़ गए हैं जो कश्मीर को भारत से जोड़ते हैं। चैदहवीं सदी के पहले कश्मीर हिंदू धर्म का प्रमुख केंद्र था। वह सांस्कृतिक इतिहास जैसे आज महत्वहीन हो चुका है। मजहबी कट्टरवादियों के बढ़ते दबाव में शायद आज इसे याद करने की भी इजाजत नही है। जिन कश्मीरी युवाओं के दिमाग कभी शेरो-शायरियों का उत्पादन केंद्र हुआ करते थे, आज उनमें पत्थर फेंकने के नये-नये तरीके इजाद हो रहे हैं।
पांच साल-दस साल के बच्चे जिन्हे धर्म, सम्प्रदाय के बारे में ठीक से पता भी नही होता है वे आजादी मांगते और पत्थरबाजों के लिए पत्थर इकट्ठे करते हर शुक्रवार को मिल जायेंगे। जो कश्मीर कभी शांत रहता था, जहां की हवा स्वच्छ थी, आज वहां केवल बूटों की आवाजें दिखाई दे रही हैं और यह आवाजें स्वाभाविक नही हैं यह आवाजें पैदा की गई हैं, सेना के जवानों को लगातार उकसाया जा रहा है, लेकिन धन्य होते हैं धरती मां के ये वीर सपूत जब तक वश चलता है चुपचाप खड़े इन पत्थरबाजों का सामना करते हैं। बात केवल कश्मीर की पत्थरबाज बनती संस्कृति की नही है, बात है 1947 में आजाद होने वाले उस भारत के संविधान के मूल की जिसमें कहा गया था कि हम धर्मनिरपेक्ष, समतामूलक समाज, गुटनिरपेक्ष व शांतिप्रिय देश की स्थापना कर रहे हैं। लेकिन अस्सी के दशक तक आते-आते कश्मीर के हालात बिगड़ गये। एक तरफ तो हमारे नेताओं ने इसकी अनदेखी की दूसरी तरफ पड़ोसी पाकिस्तान ने भी कोई कसर नही छोड़ी। जब भी मौका मिला लोगों को उकसाने के काम में लगा रहा।
दिल्ली में अब तक जो नेतृत्व रहा है, उसका हिंदुस्तानपरस्ती से कोई खास सरोकार नही रहा। ऐसे में कश्मीर का राह से भटक जाना बड़ा स्वाभाविक था। एकता के बिंदुओं की निशानदेही नही की गई। आम कश्मीरी न तो दहशतगर्द है, न ही हिंदू विरोधी। सेब उगाने वाले बागों में, अब गोले-बारूद उगने लगे हैं। कश्मीर जो आज है वह पहले ऐसा नही था। वह तो एक सीधी-सरल सोच का आदमी है, जिसे हालात ने मजबूर बना दिया। लेकिन उन हालातों को आज वहां के युवाओं ने अपना हथियार बना लिया है। आंकड़ों पर गौर डालें तो पता चलता है कि अब तक कश्मीर में पत्थरबाजी की 2690 वारदातें दर्ज हो चुकी हैं। अकेले बारमूला के सोपोर में 490 वारदातें दर्ज हुई हैं। देश के भविष्य कश्मीरी नौजवानों के हमलों में अब तक छ: हजार से ज्यादा जवान घायल हो चुके हैं। अब तक लगभग 4506 ऐसे पत्थरबाज सामने आये हैं जिनकी उम्र कम है।
इस बात में कोई दो राय नही ही कश्मीर की समस्या आज भारत के लिए नासूर बन चुकी है, लेकिन लोकतंत्र में तमाम परेशानियों का समाधान बुलेट, पत्थर, पैलेट गन से नही मिल सकता बल्कि इसका समाधान बैलेट और विकास से ही निकल सकता है। और अगर इस तरह के उद्देश्य लेकर हम कश्मीर समस्या का हल ढूढ़ने निकले तो शायद अपना अस्तित्व खोती कश्मीरियत संस्कृति को फिर से जिंदा किया जा सकता है। और शायद उस आवाम को बचाया जा सकता है, जिसको हम भारत के मानचित्र का सर मानते हैं।