मन मेरा लगता नहीं, मशीनों से भरे इन तहखानों में
मन मेरा लगता नहीं, मशीनों से भरे इन तहखानों में।
खुली हवा में सांस लेना चाहता हूँ, आमों के बागानों में।।यहां महफिलों में रोज बेनकाब होते चेहरों को देखकर
अपने भीतर उठते सवालों से दिमाग झन्ना जाता है।
हजारों आवाजों को सुनने वाले बहरों को देखकर
दिल बार-बार अजीब कशमकश में उलझ जाताi है।।
सरकार, सिस्टम को कोसने वाली जमात यहां तैयार है
गाली देना, निंदा करना, यहां बौद्धिकों का हथियार है।
घूंघट, बुर्के, जींस की सोंच डायपर तक आ गई है
साठ साल को छोड़ो, दो माह वाली भी घबरा गई है।।
गम की आग को बुझाने लोग जा रहे हैं मयखाने में
शर्म आ रही उन्हें यहां पर अपनी जिम्मेदारी उठाने में।
कुछ पाने का अहसास तो बहुत कुछ खोने का आभास
आंखों में नमी, और उलझनें पैदा कर हर बार रुलाता है।।
लफ्ज़ इनके अब खामोश हैं, फिर भी ये मदहोश हैं
दुनिया के साथ दौड़ रहे हैं ये, पर खुद के लिए बेहोश हैं।
©दुर्गेश तिवारी