इंतजार...सच्चाई को भूलकर
खुशनुमा माहौल आज उस वीरान आशियाने में
साल भर से पसरा घर का सन्नाटा टूटने वाला था
फोन की घण्टी बजते ही बुजुर्ग की आंख गीली हो गई
दूसरी तरफ से आवाज थी उसकी नई पीढ़ी की
आज बुजुर्ग के मन की खुशी चेहरे पर झलक रही थी
उसके दिल का टुकड़ा आज गांव लौट रहा था
हालांकि महीने की शुरुआत में यह खुशी लौटती थी
पूरे गाँव में वह अपने बेटे की बड़ाई करता फिरता था
जब चंद कागज के टुकड़े उसके हाथों में होते थे
घर का खर्च और अपना अपनी दवाओं के लिए
लेकिन इससे उसकी अंतरात्मा प्रसन्न नहीं होती थी
बल्कि इन रुपयों के तले वह दबाव महसूस करता था
हर बार बेटे से उसकी आखिरी ख्वाहिश होती थी
अपनी अगली संतति से मिलने और दुलारने की
हर बार बुजुर्ग के सामने एक ही बहाना आता था
कभी बच्चे का एक्जाम है तो कभी पढ़ाई
दुनिया के साथ अपनों को बराबरी करता देख
वह प्रसन्न हो जाता था, मिन्नते मानता था
लेकिन अक्सर अपने बुढ़ापे को अभिशाप मानता था
अपनों के बिछड़ने का गम उसे अक्सर रुलाता था
शाम ढलने लगी थी, बेचैनी उसके चेहरे से झलक पड़ी
अचानक किसी ने घर का किवाड़ जोर से खटखटाया
किवाड़ खोलते ही उसकी आंखें छलक उठी
दादाजी कहते हुए अबोध उसके पैरों से लिपट गया
उसने झट से बच्चे को गोद मे चिपटा लिया
अब शायद उसकी सारी खुशियां उसके पास थी
वह अपने को एक क्षण में जवान महसूस करने लगा
इस बात से अनजान होकर की अगली शाम को
शहर की राह पर निकल जाएंगी, उसे वीरान छोड़कर
वह यहीं रह जाएगा, फिर उन्हीं की बाट जोहते।
साल भर से पसरा घर का सन्नाटा टूटने वाला था
फोन की घण्टी बजते ही बुजुर्ग की आंख गीली हो गई
दूसरी तरफ से आवाज थी उसकी नई पीढ़ी की
आज बुजुर्ग के मन की खुशी चेहरे पर झलक रही थी
उसके दिल का टुकड़ा आज गांव लौट रहा था
हालांकि महीने की शुरुआत में यह खुशी लौटती थी
पूरे गाँव में वह अपने बेटे की बड़ाई करता फिरता था
जब चंद कागज के टुकड़े उसके हाथों में होते थे
घर का खर्च और अपना अपनी दवाओं के लिए
लेकिन इससे उसकी अंतरात्मा प्रसन्न नहीं होती थी
बल्कि इन रुपयों के तले वह दबाव महसूस करता था
हर बार बेटे से उसकी आखिरी ख्वाहिश होती थी
अपनी अगली संतति से मिलने और दुलारने की
हर बार बुजुर्ग के सामने एक ही बहाना आता था
कभी बच्चे का एक्जाम है तो कभी पढ़ाई
दुनिया के साथ अपनों को बराबरी करता देख
वह प्रसन्न हो जाता था, मिन्नते मानता था
लेकिन अक्सर अपने बुढ़ापे को अभिशाप मानता था
अपनों के बिछड़ने का गम उसे अक्सर रुलाता था
शाम ढलने लगी थी, बेचैनी उसके चेहरे से झलक पड़ी
अचानक किसी ने घर का किवाड़ जोर से खटखटाया
किवाड़ खोलते ही उसकी आंखें छलक उठी
दादाजी कहते हुए अबोध उसके पैरों से लिपट गया
उसने झट से बच्चे को गोद मे चिपटा लिया
अब शायद उसकी सारी खुशियां उसके पास थी
वह अपने को एक क्षण में जवान महसूस करने लगा
इस बात से अनजान होकर की अगली शाम को
शहर की राह पर निकल जाएंगी, उसे वीरान छोड़कर
वह यहीं रह जाएगा, फिर उन्हीं की बाट जोहते।