कब होगा इन कुप्रथाओं का अंत ?
कहने को तो हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। हम चंद किताबों को पढ़कर, डिग्रियां लेकर अपने आप को जागरूक समझ बैठे हैं। हम देश दुनिया में मौजूद बड़े मुद्दों पर बेबाक तरीके से अपनी बात रखते हैं। लेकिन जब वर्षों से अपने आसपास जारी कुप्रथाओं के खिलाफ बोलने की बारी आती है तो हम चुप हो जाते हैं। जबकि हमारा उनके खिलाफ आवाज उठाना शायद बदलाव की ओर महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
वैसे तो देश के कई हिस्सों में अनेक कुप्रथाएं मौजूद हैं। लेकिन इस समय चर्चा में महिला आधारित मुद्दे चरम पर हैं। यूपी और बिहार में होने वाले अधिकांश कार्यक्रमों में नौटँकी नाच का बड़ा चलन है। फिर चाहे वह आयोजन आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के यहां हो या विपन्न के। यूपी में ऐसे आयोजन जहां नौटँकी, नाच, रागिनी के नाम से जाने जाते हैं तो वहीं बिहार में ये लौंडा नाच और आर्केस्टा के रूप में मौजूद हैं। ऐसे आयोजनों में समाज का अभिजात्य वर्ग शामिल होता है। आश्चर्यजनक है कि ऐसे कार्यक्रम आयोजनकर्ताओं के सामाजिक संपन्नता का द्योतक माने जाते हैं।
पिछले साल गांव की एक बारात में मैं भी शामिल हुआ। शादी आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों की थी तो जाहिर सी बात है कि खुशियों के सारे आधुनिक तत्व इसमें मौजूद थे। लेकिन मैंने देखा कि गांव के ही कुछ अधेड़ और युवाओं का एक तबका बारात को लेकर नाक भौ सिकोड़ रहा और लड़के पक्ष को गालियाँ बक रहा था। पास जाने पर पता चला की वे लोग दूल्हे पक्ष की ओर से नाच न लाने को लेकर इस तरह की बातें कर रहे थे।
इस बात को जब मैंने दूल्हे के पिता को बताया जो रिश्ते में मेरे चाचा लगते हैं। तो उन्होंने इसके पीछे जो वजह बताई वह काबिले तारीफ थी। उनके मुताबिक नाच, आर्केस्टा जैसे किसी भी आयोजन के लिए लड़की पक्ष से साफ मनाही थी। हिदायत दी गई थी कि इस तरह का कोई भी आयोजन दूल्हे पक्ष की ओर से किया गया तो लड़की शादी तोड़ने से गुरेज नहीं करेगी। इस तरह के मजबूत कदम का ने मेरे दिल मे लड़की के प्रति सम्मान दुगुना कर दिया।
वहीं एक बार और इस तरह के आयोजन से रूबरू हुआ। यहां भी हमारे समाज के अभिजात्य वर्ग के युवा, अधेड़ व कुछ जनप्रतिनिधि भी मौजूद थे। ये वो लोग थे जिन्हें गांव में सुशिक्षित होने का दर्जा प्राप्त था। कार्यकम एक खास मौके पर आयोजित किया गया था। आयोजन में लखनऊ से कुछ डांसर बुलाई गई थी और वे उन लोगों के बीच प्रस्तुतियां दे रही थी। कुछ देर बाद वहां पर अश्लील गानों का दौर शुरू हुआ।
इसके बाद लड़को का एक झुंड मंच पर चढ़ गया और उन डांसरों पर नोट उड़ाने लगा, वहीं नीचे बैठे अधेड़ और अभिजात्य वर्ग के लोग अश्लील इशारे और टिप्पणियाँ करने लगे। हालांकि पहले तो डांसर थोड़ा असहज हो गईं, लेकिन बाद ऐसे व्यवहार करने लगी जैसे यह उनके रूटीन में शामिल हो गया हो। लेकिन अपनी झिझक और शर्म को वह छिपा नहीं पा रही थी। मजे की बात यह थी कि यहां दर्शक के रूप में महिलाएं भी शामिल थी लेकिन उन चंद युवाओं का विरोध करने के बजाय उनको लगातर प्रोत्साहन दिया जा रहा था।
अब जरा सिक्के को उल्टा कीजिए। राह चलती किसी लड़की पर पर कोई कॉमेंट करके देखिए। आसपास के लोग आपको पीटकर अधमरा कर देंगे, वश चलने पर जान तक ले ली जाती है। लेकिन उन्ही लोगों के प्रभुत्व वाली जगहों पर जब सैकड़ों की भीड़ उन डांसरों को अश्लील गाने पर डांस करने की फरमाइश करती है तो उसका विरोध करने का साहस कोई नहीं करता। उल्टे इनके खिलाफ बोलने वालों को चुप करा दिया जाता है।
उपरोक्त दोनों घटनाएं प्रसंगवश हैं लेकिन सवाल यही है कि हम किस बदलाव की बात कर रहे हैं। भौतिक बदलाव कितना स्थाई रहेगा जबकि मानसिक बदलाव के बारे में हम सोंचना ही नहीं चाहते हैं। हालतों पर नजर डालिए एक तरफ एक लड़की है जो इन कुप्रथाओं को बंद कराने के लिए अपनी शादी तोड़ने तक पर अड़ी है। वहीं दूसरी तरफ समाज का एक वर्ग इन कार्यक्रमों में रस ढूंढ रहा है, उन डांसरों के बीच जिनके उम्र की बहन बेटियां उनके अपने घरों में मौजूद हैं।
अगर हम इस तरह के कार्यक्रमों का हिस्सा बनते हैं जहां सार्वजनिक तौर पर चंद रुपयों की खातिर डांस करने आई लड़कियों पर अश्लील टिप्पणियां की जाती हैं या फिर भद्दे इशारे किए जाते हैं तो शायद हमें उनका विरोध करना चाहिए। और अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हम उस भीड़ का अंश बन चुके हैं जो महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ दिखावा करने के लिए कैंडल मार्च करती है, सोशल मीडिया पर लंबे लंबे भाषण झाड़ती है, लेकिन अगले ही पल वह अश्लीलता से भरे इन कार्यक्रमों में शामिल होकर इसे बढ़ावा देने का काम करती है।
वैसे तो देश के कई हिस्सों में अनेक कुप्रथाएं मौजूद हैं। लेकिन इस समय चर्चा में महिला आधारित मुद्दे चरम पर हैं। यूपी और बिहार में होने वाले अधिकांश कार्यक्रमों में नौटँकी नाच का बड़ा चलन है। फिर चाहे वह आयोजन आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के यहां हो या विपन्न के। यूपी में ऐसे आयोजन जहां नौटँकी, नाच, रागिनी के नाम से जाने जाते हैं तो वहीं बिहार में ये लौंडा नाच और आर्केस्टा के रूप में मौजूद हैं। ऐसे आयोजनों में समाज का अभिजात्य वर्ग शामिल होता है। आश्चर्यजनक है कि ऐसे कार्यक्रम आयोजनकर्ताओं के सामाजिक संपन्नता का द्योतक माने जाते हैं।
पिछले साल गांव की एक बारात में मैं भी शामिल हुआ। शादी आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों की थी तो जाहिर सी बात है कि खुशियों के सारे आधुनिक तत्व इसमें मौजूद थे। लेकिन मैंने देखा कि गांव के ही कुछ अधेड़ और युवाओं का एक तबका बारात को लेकर नाक भौ सिकोड़ रहा और लड़के पक्ष को गालियाँ बक रहा था। पास जाने पर पता चला की वे लोग दूल्हे पक्ष की ओर से नाच न लाने को लेकर इस तरह की बातें कर रहे थे।
इस बात को जब मैंने दूल्हे के पिता को बताया जो रिश्ते में मेरे चाचा लगते हैं। तो उन्होंने इसके पीछे जो वजह बताई वह काबिले तारीफ थी। उनके मुताबिक नाच, आर्केस्टा जैसे किसी भी आयोजन के लिए लड़की पक्ष से साफ मनाही थी। हिदायत दी गई थी कि इस तरह का कोई भी आयोजन दूल्हे पक्ष की ओर से किया गया तो लड़की शादी तोड़ने से गुरेज नहीं करेगी। इस तरह के मजबूत कदम का ने मेरे दिल मे लड़की के प्रति सम्मान दुगुना कर दिया।
वहीं एक बार और इस तरह के आयोजन से रूबरू हुआ। यहां भी हमारे समाज के अभिजात्य वर्ग के युवा, अधेड़ व कुछ जनप्रतिनिधि भी मौजूद थे। ये वो लोग थे जिन्हें गांव में सुशिक्षित होने का दर्जा प्राप्त था। कार्यकम एक खास मौके पर आयोजित किया गया था। आयोजन में लखनऊ से कुछ डांसर बुलाई गई थी और वे उन लोगों के बीच प्रस्तुतियां दे रही थी। कुछ देर बाद वहां पर अश्लील गानों का दौर शुरू हुआ।
इसके बाद लड़को का एक झुंड मंच पर चढ़ गया और उन डांसरों पर नोट उड़ाने लगा, वहीं नीचे बैठे अधेड़ और अभिजात्य वर्ग के लोग अश्लील इशारे और टिप्पणियाँ करने लगे। हालांकि पहले तो डांसर थोड़ा असहज हो गईं, लेकिन बाद ऐसे व्यवहार करने लगी जैसे यह उनके रूटीन में शामिल हो गया हो। लेकिन अपनी झिझक और शर्म को वह छिपा नहीं पा रही थी। मजे की बात यह थी कि यहां दर्शक के रूप में महिलाएं भी शामिल थी लेकिन उन चंद युवाओं का विरोध करने के बजाय उनको लगातर प्रोत्साहन दिया जा रहा था।
अब जरा सिक्के को उल्टा कीजिए। राह चलती किसी लड़की पर पर कोई कॉमेंट करके देखिए। आसपास के लोग आपको पीटकर अधमरा कर देंगे, वश चलने पर जान तक ले ली जाती है। लेकिन उन्ही लोगों के प्रभुत्व वाली जगहों पर जब सैकड़ों की भीड़ उन डांसरों को अश्लील गाने पर डांस करने की फरमाइश करती है तो उसका विरोध करने का साहस कोई नहीं करता। उल्टे इनके खिलाफ बोलने वालों को चुप करा दिया जाता है।
उपरोक्त दोनों घटनाएं प्रसंगवश हैं लेकिन सवाल यही है कि हम किस बदलाव की बात कर रहे हैं। भौतिक बदलाव कितना स्थाई रहेगा जबकि मानसिक बदलाव के बारे में हम सोंचना ही नहीं चाहते हैं। हालतों पर नजर डालिए एक तरफ एक लड़की है जो इन कुप्रथाओं को बंद कराने के लिए अपनी शादी तोड़ने तक पर अड़ी है। वहीं दूसरी तरफ समाज का एक वर्ग इन कार्यक्रमों में रस ढूंढ रहा है, उन डांसरों के बीच जिनके उम्र की बहन बेटियां उनके अपने घरों में मौजूद हैं।
अगर हम इस तरह के कार्यक्रमों का हिस्सा बनते हैं जहां सार्वजनिक तौर पर चंद रुपयों की खातिर डांस करने आई लड़कियों पर अश्लील टिप्पणियां की जाती हैं या फिर भद्दे इशारे किए जाते हैं तो शायद हमें उनका विरोध करना चाहिए। और अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हम उस भीड़ का अंश बन चुके हैं जो महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ दिखावा करने के लिए कैंडल मार्च करती है, सोशल मीडिया पर लंबे लंबे भाषण झाड़ती है, लेकिन अगले ही पल वह अश्लीलता से भरे इन कार्यक्रमों में शामिल होकर इसे बढ़ावा देने का काम करती है।