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राजनीतिक रायता, पार्ट 2

सिंहासन के लिए बिसात बिछ चुकी थी. भविष्यवाणी करने वालों की दुकानें सज गई थीं. हर तरीके से, ऊपर, नीचे, आगे-पीछे की भविष्यवाणियां दलों की इच्छा और वजनानुसार सुनाई जा रही थीं. (हालांकि लोकतांत्रिक आधार पर आप जिसे चाहे सुन, देख सकते हैं) सिंहासन की दौड़ में शामिल सभी कारकों को भविष्य ही दिखाई दे रहा था.(क्योंकि इच्छाओं का केमिकल इतना तेज होता है कि वर्तमान बस भागते हुए ही बीतता है)...नगर के सैकड़ों नुक्कड़, अब भविष्य वक्ताओं से भरे नजर आ रहे थे....बच्चे, बड़े, बूढ़े हर कोई सिंहासन के लिए अपनी समझ और विहंगावलोकन की तथाकथित डिग्री के मुताबिक भविष्यवाणी सुनाने लगा. (हालांकि परिणाम आने पर सोशल मीडिया से भविष्यवाणियां हटाने में यही आगे रहते हैं)

अपने पसंदीदा पक्ष के बारे में बढ़चढ़ कर भविष्यवाणी करने के चक्कर में कई भविष्यवक्ताओं के बीच नुक्कड़ पर ही कुकरहव शुरू हो गया. जो अंततः मारपीट के बाद ही खत्म हुआ. वक्ताओं को सलाह दी जाने लगी कि कवच बांधकर जाइये, क्या पता कब युद्ध शुरू हो जाए. इधर पक्षकारों में भी मोर्चा संभाल लिया. कुछ तो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में स्वयंसेवक बन गए. बेरोजगारी में यह आम बात हो गई, बजाए इसके कि अपनी योग्यतानुसार काम ढूढ़ने के नगर के संस्थापककों गरियाते, कोसते कई स्वंयसेवक मुफ्त में रात दिन सेवा करने लगे (चौकीदार तो बन ही चुके थे).

बड़े साहब बहुत कांफिडेंस के साथ इस दौड़ में शामिल थे. चूंकि वे इस सिंहासन के वर्तमान प्रभारी थे तो उनको ढेर सारा प्रोटोकॉल भी मिला था. लेकिन उन्हें भीतर ही भीतर डर जरूर लग रहा था...वहीं कुछ सभाओं में जुटी भीड़ ने इसकी पुष्टि भी कर दी थी. उधर परिवार के सदस्य भी भरी दोपहरी में एयर कंडीशनर कमरों को छोड़ कर समरभूमि में उतर आए. बाबा-दीदी पहले से ही मोर्चा संभाल लिए थे, अब बुआ भतीजे ने भी वादों के तीर छोड़ने शुरू कर दिए. लेकिन आमजन के मुद्दे रद्दी की टोकरी में ही पड़े रहे.

उधर अपने काम पर जमे वित्त विभाग वालों को इस रेस को आयोजित करने वाले चाचा की ओर से कहा गया कि बिना सुबूतों के खिलाड़ियों या उनके करीबियों के खिलाफ किसी तरह की इकतरफा कार्रवाई न की जाए...हालांकि नगर के कई धड़े यह मान रहे थे कि यह कार्रवाई तो सही है लेकिन गलत वक्त पर की गई है. (पर वित्त वाले अपने काम पर लगे रहे, जिससे खिलाड़ियों के रातों की नींद गायब हो गई).

इस बीच जनता और दल के बीच प्रेम पत्र सरीखे वादों के पुलिंदे आने शुरू हो गए जो इस दौड़ में शामिल होने और विपक्षी के सामने अपने को मजबूत बताने का प्रमुख और अनिवार्य हथियार थे. (यह बात अलग है कि प्रेम पत्रों की तरह यह भी तभी याद आते हैं जब जनता से ब्रेकअप होता है). प्रेम पत्रों की चिकनी चुपड़ी बातों की तरह इनमें भी वादों की भरमार थी...जिनमें से अधिकांश के पूरे होने की उम्मीद अगले 50 सालों में भी कठिन जान पड़ती थी.

नगर में अभी आशिकी(राजनीति) में एंट्री किए नए आशिकों (समर्थकों) के लिए यह प्रेम पत्र दुनिया के सर्वश्रेष्ठ दस्तावेज थे. लेकिन वे पुराने आशिक जिनकी जिंदगी इन प्रेम पत्रों की लाइनों में छुपे सपनों के चलते बेहोशी की हालत में गुजर गई, इसे अपने अनुभवों से ढकोसला बताने और साबित करने की पूरी कोशिश कर रहे थे.(हालांकि स्क्रीनोफोबिया से ग्रसित आशिक उनकी बात अनसुनी कर चुके थे और सपनों में खो चुके थे).

सिंहासन की दौड़ में शामिल सभी खिलाड़ियों ने अपना एक फिक्स रूटीन बना लिया था. जिसमें उड़न खटोले से नगर के कोने कोने में जाना.(क्योंकि लग्जरी कारों से तो अब देश के तथाकथित किसानों के बेटे भी चलते हैं)...पानी पी पीकर विरोधियों को कोसना.(हालांकि यह राजनीतिक चुहलबाजी कम व्यक्तिगत आक्षेप ज्यादा हो गई ). हर काम के लिए नगर के संस्थापकों को गरियाना (हालांकि द्वारा हासिल कार्य गिनाने में उन्हें अब नई नवेली दुल्हन जैसी शर्म आनी लगी) सरकारी, प्राइवेट और स्वतंत्र हरकारों को अपनी भावी योजना विरोधी को गरियाते हुए बताना ताकि उस दिन और अगले दो चार दिन वह सुर्खियों में रहे. व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से निकली तरकीबों में तकनीक का सहारा लेकर नित इस अविष्कार करवाना (जिसे देख आर्यभट्ट होते तो आत्महत्या कर लेते). पार्टी की आशिकी में डूबकर बेरोजगारी का रोना रोने वाले आशिकों में जोश भरना शामिल था. 

इधर कुछ दिनों से नगरवासियों ने राहत की सांस ली थी. अब अस्पताल में हड़तालें नहीं चल रहीं थी. परिणामस्वरूप डॉक्टर साहब समय से आ रहे थे. तहसील में काम हो रहा था. स्कूलों में बच्चे अब कक्षाओं के बाहर नहीं दिखते थे, क्योंकि अधिकांश की परीक्षाएं हो चुकी थी, या तो वे अपना भविष्य बना रहे थे या सिंहासन की दौड़ में शामिल करको की भविष्यवाणी में लगे थे. अध्यापक मिड डे मील का रजिस्टर बनाने के बजाए सिंहासन तक दौड़ के आयोजन को निष्पक्ष कराने की तैयारी में लगे थे.
©® दुर्गेश तिवारी
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