राजनीतिक रायता फैल गया
सिंघासन पर आसीन होने के साथ ही अपने को फकीर बताने वाले बड़े साहब ने जनता के सामने वाया सोशल मीडिया यह राय फैला दी कि सिंघासन की रक्षा उनसे ज्यादा अच्छे से कोई नहीं कर सकेगा (दुनिया के श्रेष्ठ चौकीदार वे ही हैं). हालांकि पिछले 5 साल से भतीजा, चाचा, बुआ, दीदी भी यह शिगूफा फैला रखी थीं कि सिंघासन पर आसीन होने के लिए उनसे ज्यादा श्रेष्ठ इस दुनिया में न तो अवतरित हुआ न शायद होगा.
अपने भविष्य की चिंता में मशगूल सिंघासन के अन्य अलमबरदारों ने नगर के पश्चिम किनारे पर बैठक की. उद्देश्य यही था कुछ भी हो जाए इस बार जवानों, किसानों और गरीबों के ब्रांड वाली फसल उन्हीं के खातों में चढ़नी चाहिए. लेकिन कुछ विशेष कारणों से यह बैठक भटक गई. अंततः उत्तर द्वार पर मौजूद बुआ और भतीजे ने मोर्चा संभाला, तो पश्चिम में मौजूद बड़ी दीदी ने किसी को भी अपने किनारे फटकने न दिया.
उधर उत्तर मध्य में मौजूद एक साहब जिनके दम पर उस कोने के साहेब पंचायती से लेकर संसद तक का सफर आसानी से तय कर लेते थे जेल चले गए. कुछ दिन बाद साहब के साहेब का भी बुलावा आ गया. माया मिली न राम वाली स्थिति आ गई...जिनको वे लखन का तमगा देते थे वही उनकी रामायण के रावण बन गए. इधर फकीर बने बड़े साहब ने वजीर कम चाणक्य के माध्यम से सिंघासन की रेस में शामिल नगर के दर्जनों दलों को अपने साथ मिला लिया.
नगर में ढिंढोरा बज चुका था. सिंघासन पर आसीन होने के लिए महत्वपूर्ण कारकों (विविध चेहरों) ने ताल ठोंक दी. साहब और परिवार (बबुआ, दीदी, बाबा, बड़ी दीदी) का अभियान जोरों पर था इस बीच एक विपक्षी दरबारी ने अपनी उपेक्षा से तंग आकर एक उड़ता तीर छोड़ दिया. सिंघासन के फकीर की तुलना पड़ोसी देश के चौकीदार से कर दी. बड़े साहब ने मौके का फायदा उठाया (देश के लोगों के लिए यह आम बात है). चौकीदारी को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया...अन्य ने उसे लपका लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.
फकीर साहब वैश्विक चौकीदार बन चुके थे...परिणामस्वरूप अगले कुछ ही घण्टों में नगर में चौकीदारों की बाढ़ आ गई. असली चौकीदारों के साथ एक अच्छी और एक बुरी बात हुई. अच्छी यह कि अब देर रात तक स्क्रीन से चेहरा चिपकाए दर्जनों चौकीदार उन्हें गलियों में मिलने लगे लेकिन बुरी बात यह हुई कि उनको अब अपनी नौकरी पर खतरा महसूस होने लगा.
सिंघासन की दौड़ का बिगुल बजते ही जब बाबा ने देखा कि बुआ- भतीजा उन्हें भाव नहीं दे रहे तो उन्होंने बड़ी मिन्नतें करके दीदी को रणभूमि में साक्षात अवतरित करा दिया (हालांकि वह पहले से ही सक्रिय थीं). दीदी ने भी आते ही नगर की सबसे पवित्र नदी का तमगा लिए गंगा को छान मारा(हालांकि रिपोर्टों ने उसकी पवित्रता पर सवाल उठा रखे हैं)...दीदी के साथ कई दिन गंगा में नौकालाभ लेने के बाद अंततः नगर के हरकारों (संचारकों) ने कहा सब कुछ ठीक है लेकिन गंगा का पानी आचमन लायक नहीं है. वैसे यह पता सबको है बस बोलता कोई कोई है (भावनाओं का मामला है, क्या पता कब किसे ठेस पहुंच जाए).
इस बीच नगर वाले बड़े खुश हुए, चलो इस बार सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार मुद्दों के केंद्र में रहेंगे. लेकिन उनके सपने तब चकनाचूर हो गए जब साहेब और बबुआ, भतीजा, दीदी के बीच सिंहासन को लेकर कुकरहव शुरू हो गया. नगर वालों के मुद्दे रद्दी की टोकरी में पहुंच चुके थे, सोशल मीडिया पर चौकीदारों की अस्मिता पर सवाल उठ रहे थे. चौकीदार अपनी इज्जत की भीख मांग रहे थे, लेकिन सबको सिर्फ सिंघासन तक पहुंचने की परवाह थी.
नगर के पुराने रक्षकों (जो अब स्वर्ग से इस कुकरहव को देख रहे होंगे) को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में तैयार गालियों का नास्ता कराया जाने लगा...लेकिन वर्तमान में मौजूद मुद्दों पर बात करने के लिए न तो किसी के पास वक्त था न इच्छा (भाई तर्कसंगत बात के लिए समय और संसाधन के बारे में विचार करना पड़ता है). वर्तमान से निकली तो पुरखों तक पहुंची इस चर्चा में वह भी अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने के लिए दौड़ने लगे जिन्होंने बस अभी चलना सीखा था. लेकिन ठीक से न काढ़े गए यह बैल आधे रास्ते में ही हांफ गए.
अभी यह चर्चा ठीक से गरम भी न हो पाई की नगर के वित्त विभाग वालों ने सत्ता के कई करीबियों पर कार्रवाई करके सबकी नींद उड़ा दी. इस कार्रवाई का जो परिणाम आया उससे दो बात सामने आई. पहली कि चौकीदार चोर नहीं हो सकता (हालांकि राजनीति से इतर कोई इसे नहीं स्वीकार करेगा) दूसरी बात कि चौकीदार की ईमानदारी के चलते कइयों को अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगा.
इस बीच वाया सोशल मीडिया उड़ता तीर आया कि जीजा भी इस रण में साले का साथ देने को आ रहे हैं (यह बात अलग है कि जीजा भी वित्त विभाग वालों से परेशान हैं ). खबर आने के बाद नगर वालों की नींदे उड़ गई हैं....नुक्कड़ों पर चौकीदार की अस्मिता पर हो रही बहस का रूप बदल चुका था...अब नगर के लोग मुद्दे को परे धकेल अपने जमीनी कागजात छुपाने की कोशिश में लग गए. सुनने में आया है कि जमीन पर जीजा की दृष्टि पड़ने का मतलब है उससे छुटकारा मिल जाना...जो कृषि प्रधान नगर की जनता कभी नहीं चाहेगी।
अपने भविष्य की चिंता में मशगूल सिंघासन के अन्य अलमबरदारों ने नगर के पश्चिम किनारे पर बैठक की. उद्देश्य यही था कुछ भी हो जाए इस बार जवानों, किसानों और गरीबों के ब्रांड वाली फसल उन्हीं के खातों में चढ़नी चाहिए. लेकिन कुछ विशेष कारणों से यह बैठक भटक गई. अंततः उत्तर द्वार पर मौजूद बुआ और भतीजे ने मोर्चा संभाला, तो पश्चिम में मौजूद बड़ी दीदी ने किसी को भी अपने किनारे फटकने न दिया.
उधर उत्तर मध्य में मौजूद एक साहब जिनके दम पर उस कोने के साहेब पंचायती से लेकर संसद तक का सफर आसानी से तय कर लेते थे जेल चले गए. कुछ दिन बाद साहब के साहेब का भी बुलावा आ गया. माया मिली न राम वाली स्थिति आ गई...जिनको वे लखन का तमगा देते थे वही उनकी रामायण के रावण बन गए. इधर फकीर बने बड़े साहब ने वजीर कम चाणक्य के माध्यम से सिंघासन की रेस में शामिल नगर के दर्जनों दलों को अपने साथ मिला लिया.
नगर में ढिंढोरा बज चुका था. सिंघासन पर आसीन होने के लिए महत्वपूर्ण कारकों (विविध चेहरों) ने ताल ठोंक दी. साहब और परिवार (बबुआ, दीदी, बाबा, बड़ी दीदी) का अभियान जोरों पर था इस बीच एक विपक्षी दरबारी ने अपनी उपेक्षा से तंग आकर एक उड़ता तीर छोड़ दिया. सिंघासन के फकीर की तुलना पड़ोसी देश के चौकीदार से कर दी. बड़े साहब ने मौके का फायदा उठाया (देश के लोगों के लिए यह आम बात है). चौकीदारी को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया...अन्य ने उसे लपका लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.
फकीर साहब वैश्विक चौकीदार बन चुके थे...परिणामस्वरूप अगले कुछ ही घण्टों में नगर में चौकीदारों की बाढ़ आ गई. असली चौकीदारों के साथ एक अच्छी और एक बुरी बात हुई. अच्छी यह कि अब देर रात तक स्क्रीन से चेहरा चिपकाए दर्जनों चौकीदार उन्हें गलियों में मिलने लगे लेकिन बुरी बात यह हुई कि उनको अब अपनी नौकरी पर खतरा महसूस होने लगा.
सिंघासन की दौड़ का बिगुल बजते ही जब बाबा ने देखा कि बुआ- भतीजा उन्हें भाव नहीं दे रहे तो उन्होंने बड़ी मिन्नतें करके दीदी को रणभूमि में साक्षात अवतरित करा दिया (हालांकि वह पहले से ही सक्रिय थीं). दीदी ने भी आते ही नगर की सबसे पवित्र नदी का तमगा लिए गंगा को छान मारा(हालांकि रिपोर्टों ने उसकी पवित्रता पर सवाल उठा रखे हैं)...दीदी के साथ कई दिन गंगा में नौकालाभ लेने के बाद अंततः नगर के हरकारों (संचारकों) ने कहा सब कुछ ठीक है लेकिन गंगा का पानी आचमन लायक नहीं है. वैसे यह पता सबको है बस बोलता कोई कोई है (भावनाओं का मामला है, क्या पता कब किसे ठेस पहुंच जाए).
इस बीच नगर वाले बड़े खुश हुए, चलो इस बार सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार मुद्दों के केंद्र में रहेंगे. लेकिन उनके सपने तब चकनाचूर हो गए जब साहेब और बबुआ, भतीजा, दीदी के बीच सिंहासन को लेकर कुकरहव शुरू हो गया. नगर वालों के मुद्दे रद्दी की टोकरी में पहुंच चुके थे, सोशल मीडिया पर चौकीदारों की अस्मिता पर सवाल उठ रहे थे. चौकीदार अपनी इज्जत की भीख मांग रहे थे, लेकिन सबको सिर्फ सिंघासन तक पहुंचने की परवाह थी.
नगर के पुराने रक्षकों (जो अब स्वर्ग से इस कुकरहव को देख रहे होंगे) को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में तैयार गालियों का नास्ता कराया जाने लगा...लेकिन वर्तमान में मौजूद मुद्दों पर बात करने के लिए न तो किसी के पास वक्त था न इच्छा (भाई तर्कसंगत बात के लिए समय और संसाधन के बारे में विचार करना पड़ता है). वर्तमान से निकली तो पुरखों तक पहुंची इस चर्चा में वह भी अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने के लिए दौड़ने लगे जिन्होंने बस अभी चलना सीखा था. लेकिन ठीक से न काढ़े गए यह बैल आधे रास्ते में ही हांफ गए.
अभी यह चर्चा ठीक से गरम भी न हो पाई की नगर के वित्त विभाग वालों ने सत्ता के कई करीबियों पर कार्रवाई करके सबकी नींद उड़ा दी. इस कार्रवाई का जो परिणाम आया उससे दो बात सामने आई. पहली कि चौकीदार चोर नहीं हो सकता (हालांकि राजनीति से इतर कोई इसे नहीं स्वीकार करेगा) दूसरी बात कि चौकीदार की ईमानदारी के चलते कइयों को अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगा.
इस बीच वाया सोशल मीडिया उड़ता तीर आया कि जीजा भी इस रण में साले का साथ देने को आ रहे हैं (यह बात अलग है कि जीजा भी वित्त विभाग वालों से परेशान हैं ). खबर आने के बाद नगर वालों की नींदे उड़ गई हैं....नुक्कड़ों पर चौकीदार की अस्मिता पर हो रही बहस का रूप बदल चुका था...अब नगर के लोग मुद्दे को परे धकेल अपने जमीनी कागजात छुपाने की कोशिश में लग गए. सुनने में आया है कि जमीन पर जीजा की दृष्टि पड़ने का मतलब है उससे छुटकारा मिल जाना...जो कृषि प्रधान नगर की जनता कभी नहीं चाहेगी।