आधुनिक काल मे भी बाबाओं के चरणों मे लेटना कितना प्रासंगिक
बाबा
अगर थोड़ा सा भी प्रचार का सहारा लेते हैं, तो इनके सामने
देश को संचालित करने वाले सफेदपोसों कि लाइन लग जाती है। राजनेता, फ़िल्मी
सितारे, क्रिकेट खिलाड़ी, नौकरशाह और
आम लोग इन गुरुओं के भक्त होते हैं। नेता उनके पास नोट देने और भक्तों का वोट लेने आते हैं। किसी गुरु के साथ नज़दीकी नेता की जन-मानस में स्वीकार्यता और उसका
राजनीतिक क़द दोनों को बढ़ावा देती है।

आमलोगों की इन्ही कमजोरियों का फायदा ये आडम्बर फैलाने वाले कथित बाबा उठाते
हैं।
ये बाबा अपने स्कूल और अस्पताल चलाते हैं। इनके विचार मानने वालों पर उनका अच्छा-ख़ासा
प्रभाव होता है। जब
लोग इनकी हर बात को मानने लगते हैं, तो फिर ये उनकी आस्था और भावना का दुरूपयोग
करते हैं और अपना स्वार्थ साधते हैं।
सभी
चुनावी पार्टियों के नेता इनके भक्त हैं। धर्म के इन जागीरदारों के जनाधार को हर
चुनावी पार्टी अपना वोट बैंक बना लेना चाहती है। ये लोग अपनी पूँजी और सामाजिक
आधार के दम पर अच्छा-खासा राजनीतिक असर-रसूख हासिल कर लेते हैं। शायद इसी का परिणाम
होता है कि आशाराम,
स्वामी नित्यानंद, रामपाल, राम-रहीम, जाकिर नाइक जैसे धर्मगुरु व धर्म प्रचारक
अपनी ख़ुद की समानांतर सत्ता चलाते हैं और अपने भक्तों को कई तरह की सेवाएं भी
देते हैं। क़त्ल, बलात्कार, मानव तस्करी, भड़काऊ
भाषण, धर्म विशेष के प्रति कट्टरता, धोखाधड़ी और हमले करवाने जैसे आरोपों से घिरे
इन लोगों के जलवे आरोप सिद्ध न होने तक आसमान छूते हैं।
करोड़ों
लोगों का इनके पास जाने का सबसे बड़ा कारण यह है कि, अक्सर वोट बैंक और तुष्टीकरण
की राजनीति में सरकारें आमलोगों की एक बड़ी तादाद को उपेक्षित कर देती हैं। जिसमें
जातिवाद, सम्प्रदायवाद और आर्थिक असमानता शामिल होती है। इस उपेक्षा में कई बार
ऐसे क़ानून अस्तित्व में आते हैं जिससे कि, एक वर्ग को तो फायदा हो जाता है लेकिन
दूसरा उतना ही घाटा झेलता है। परिणामस्वरूप वो कुछ सम्मान और बेहतर जीवन की आस में
डेरा सच्चा सौदा जैसे अपरंपरागत पंथ की ओर बढ़ चलते हैं। जहाँ वे लोग लाखों भक्तों
के साथ एक जगह इकट्ठा होकर बराबरी का एहसास करते हैं।
धर्म
के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले ये धर्मगुरु आमलोगों को समाज में व्याप्त
कुरीतियों के खिलाफ समानता, सम्मान, सुरक्षा देने की आशा बंधाकर भाग्यवादी बना
देते हैं। उनके मन-मस्तिष्क पर छा जाने के लिए ये धर्म की गलत व्याख्या
भी करते हैं। परिणामस्वरूप लोग कर्मवादी न बनकर धर्म और भाग्यवाद का सहारा
लेते हैं, जिनको अपने चंगुल में फंसाना इनके लिए आसान होता है।
न्यायपालिका
की लचर न्यायप्रक्रिया के कारण इन पर लगे आरोपों को सिद्ध करने में सालों लग जाते
हैं, इस दौरान ये धर्मगुरु आम जन-मानस की भावनाओं का ये फायदा उठाते हैं। इसके बाद
अपना निजी स्वार्थ गांठते हैं जिससे ये सरकार, सिस्टम और आम-जनता में पापुलर हो
जाते हैं। बाद में जब न्यायिक प्रक्रिया में कोई फैसला इनके खिलाफ आता है तो इनके
अंधभक्त गुंडे उसे मानने से इनकार करते हैं। सरकार पर दबाव डालने के लिए वे उपद्रव
मचाते हैं।

धर्मप्रचारक,
धर्मगुरू, मौलवी किस तरह से अपनी सामानांतर सत्ता चला सकते हैं और सरकारें उनके
सामने किस तरह से बेबस हो सकती हैं। इसके अनेकों दृश्य हम आशाराम, रामपाल, गुरुमीत
राम रहीम, जाकिर नाइक जैसे लोगों की अंधभक्ति के परिणाम स्वरुप हम देख चुके हैं।
अब जरूरत है कि हम इस अंधभक्ति से पहले खुद निकलें फिर दूसरों को भी निकालें।
सरकार
को ऐसे आश्रमों, मठों, मदरसों, मस्जिदों पर लगातार नजर रखनी चाहिए जहाँ से धर्म
विशेष को बढ़ावा देने या वैचारिक उन्माद फैलाने की ख़बरें आती रहती हैं। संसद में
बनने वाले कानून जातिवाद, धर्मविशेष या वोटबैंक के आधार पर न होकर आर्थिक समानता,
सामाजिक समरसता को ध्यान में रखकर बनाये जाने चाहिए। राजनीतिकों को इन तथाकथित
धर्म गुरुओं की शरण में जाने से बचना चाहिए। इसकी जगह विकासवाद को बढ़ावा देकर
निस्वार्थ, ईमानदार और सबके उत्थान को लक्ष्य बनाना चाहिए।
न्यायपालिका
को ऐसे धर्म गुरुओं पर लगने वाले आरोपों की समय से जांच कर फैसला सुनाना चाहिए
ताकि जन-विद्रोह से बचा जा सके। मीडिया की भूमिका ऐसे मामलों में प्रमुख होती है।
धर्मगुरुओं पर लगे आरोपों का फैसला आने के बाद मीडिया जिस तरह से उनके काले
कारनामे आम जनता के सामने खोल कर रखता है, ये काम उसे पहले से करना चाहिए। जिससे
कि आम लोगों को सच्चाई का पता चले और वे अंधभक्त न बने।