छवि और संगठन के बीच फंसे मुख्यमंत्री योगी
2014 आम चुनाव में यूपी ने एक तरफा निर्णय सुनाते हुए भाजपा को 71 सीटों पर जीत का तोहफा दिया। इसके बाद यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव हुए। सभी राजनीतिक दलों को दरकिनार करते हुए जनता ने 312 सीटों पर भाजपा को स्वीकार किया। बहुत ही कम मौके आए जब यूपी ने इस तरह के जनादेश दिए हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि विकास के मामले में उसे निराशा ही हाथ लगी है।
11 मार्च को विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही यूपी में मुख्यमंत्री पद की रेस शुरू हो गई। तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष से लेकर रेल राज्यमंत्री तक के नाम इसमें शामिल हो गए। चूंकि मनोज सिन्हा पूर्वांचल में सवर्णों के प्रचलित नेता रहे हैं ऐसे में एक समय बाद लगने लगा कि उनका मुख्यमंत्री बनना लगभग तय है। लेकिन मीडिया की अतिशयोक्ति के चलते उन्हें केंद्र में ही रहकर संतोष करना पड़ा। योगी आदित्यनाथ बीजेपी के हिंदुत्व समर्थक फायर ब्रांड नेताओं में से एक माने जाते रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही उनकी अनदेखी की जा रही थी। 5वीं बार सांसद बने योगी का मोदी मंत्रिमंडल में शामिल न होना पूरे पूर्वांचल समेत देश मे चर्चा का विषय बना हुआ था। लेकिन 18 मार्च को बीजेपी संसदीय दल ने बैठक में यूपी सीएम के रूप में उनके नाम पर मुहर लगाकर प्रदेश की कार्यपालिका, विधायिका समेत प्रेस को भी चौंका दिया। अब योगी आदित्यनाथ सिर्फ एक मठ के महंत और गोरखपुर के सांसद नहीं थे। अब वे 20 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश के इकलौते मुखिया थे। अब योगी आदित्यनाथ को लेकर चैनलों का रूख बदल चुका था। आशाओं, अंदेशों और पूर्वाग्रहों का बाजार गर्म था।
काडर के मुताबिक सरकार का गठन
हालांकि सीएम पद के लिए प्रस्तावित योगी आदित्यनाथ अभी दिल्ली से लखनऊ पहुंचे भी नहीं थे इससे पहले उनकी रखवाली के लिए संगठन ने दो उप मुख्यमंत्री के नाम प्रस्तावित कर दिए। जिनमें काडर के मुताबिक केशव प्रसाद मौर्य और तत्कालीन लखनऊ के मेयर और संघ की पसन्द डॉ दिनेश शर्मा के नाम शामिल थे। खैर 19 मार्च को जब मुख्यमंत्री के रूप में योगी ने शपथ ली तो मंच पर जातिवादी काडर और संघ में प्रभाव रखने वाले लोगों के हिसाब से सेट की गई पूरी कैबिनेट साथ दिखी। काडर और संगठन का ही प्रभाव था कि अदने से जिले बहराइच को दो मंत्री पद मिले। यह अलग बात है कि जिला ढाक के तीन पात ही रह गया।
हालांकि सीएम पद के लिए प्रस्तावित योगी आदित्यनाथ अभी दिल्ली से लखनऊ पहुंचे भी नहीं थे इससे पहले उनकी रखवाली के लिए संगठन ने दो उप मुख्यमंत्री के नाम प्रस्तावित कर दिए। जिनमें काडर के मुताबिक केशव प्रसाद मौर्य और तत्कालीन लखनऊ के मेयर और संघ की पसन्द डॉ दिनेश शर्मा के नाम शामिल थे। खैर 19 मार्च को जब मुख्यमंत्री के रूप में योगी ने शपथ ली तो मंच पर जातिवादी काडर और संघ में प्रभाव रखने वाले लोगों के हिसाब से सेट की गई पूरी कैबिनेट साथ दिखी। काडर और संगठन का ही प्रभाव था कि अदने से जिले बहराइच को दो मंत्री पद मिले। यह अलग बात है कि जिला ढाक के तीन पात ही रह गया।
शुरुआती दिनों में योगीराज
मुख्यमंत्री बनने के बाद ही जिन दो फैसलों को लेकर योगी आदित्यनाथ चर्चा में आए उनमे एंटी रोमियो स्क्वाड का गठन, कर्जमाफी और अवैध कत्लखानों को बंद करना प्रमुख रहे। इसके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, ढांचागत विकास और किसानों के हित में लिए गए फैसलों ने भी जनता का ध्यान आकर्षित किया।
मुख्यमंत्री बनने के बाद ही जिन दो फैसलों को लेकर योगी आदित्यनाथ चर्चा में आए उनमे एंटी रोमियो स्क्वाड का गठन, कर्जमाफी और अवैध कत्लखानों को बंद करना प्रमुख रहे। इसके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, ढांचागत विकास और किसानों के हित में लिए गए फैसलों ने भी जनता का ध्यान आकर्षित किया।
शुरुआती दिनों से ही बिगड़ने लगी बात
सैफई नौटँकी(अखिलेश/मुलायम/शिवपाल) के चलते अव्यवस्था की कगार पर पहुंच चुके प्रदेश में योगी के फैसलों से आम जनता में राहत की सांस ली। लेकिन इन्ही नियमों के चलते फिर से आम लोग परेशान होने लगे। जिनमें एंटी रोमियो स्क्वाड द्वारा बेवजह किया गया उत्पीड़न प्रमुख रहा। हालांकि कर्जमाफी ने किसानों के दिलों में सरकार की सकारात्मक छवि जरूर बनाई लेकिन सहारनपुर, मथुरा जैसे जगहों पर हुई घटनाओं ने किरकिरी भी करवाई।
सैफई नौटँकी(अखिलेश/मुलायम/शिवपाल) के चलते अव्यवस्था की कगार पर पहुंच चुके प्रदेश में योगी के फैसलों से आम जनता में राहत की सांस ली। लेकिन इन्ही नियमों के चलते फिर से आम लोग परेशान होने लगे। जिनमें एंटी रोमियो स्क्वाड द्वारा बेवजह किया गया उत्पीड़न प्रमुख रहा। हालांकि कर्जमाफी ने किसानों के दिलों में सरकार की सकारात्मक छवि जरूर बनाई लेकिन सहारनपुर, मथुरा जैसे जगहों पर हुई घटनाओं ने किरकिरी भी करवाई।
कानून व्यवस्था की नैया का हिचकोले लेना
हालांकि राजनीतिक बाल्यकाल में वयस्कों का सामना कर रहे अखिलेश को यूपी की जनता ने नकार जरूर दिया। लेकिन उनके द्वारा कानून व्यवस्था को दिया गया प्रमुख उपहार यूपी 100 योगी सरकार के लिए अमृत बन गया। इसके बाद रही सही कसर प्रशानिक और कानूनी व्यवस्था दुरुस्त रखने में काबिल अफसरों की तैनाती ने पूरी कर दी। सरकार की ओर से भी प्रदेश को अपराधमुक्त बनाने की कवायद के परिणामस्वरूप पश्चिमी उत्तरप्रदेश में कुख्यातों का पूर्णतः सफाया किया गया। लेकिन पुलिस की निष्पक्षता पर लगातार सवाल उठते रहे। और अपवाद स्वरूप सहारनपुर, मथुरा, और कासगंज जैसी घटनाएं सामने आईं जिसमे सरकार और कानून को नीचा दिखाने के लिए जाति और सांप्रदायिक ताकतों ने एड़ी चोटी का जोर लगाया।
हालांकि राजनीतिक बाल्यकाल में वयस्कों का सामना कर रहे अखिलेश को यूपी की जनता ने नकार जरूर दिया। लेकिन उनके द्वारा कानून व्यवस्था को दिया गया प्रमुख उपहार यूपी 100 योगी सरकार के लिए अमृत बन गया। इसके बाद रही सही कसर प्रशानिक और कानूनी व्यवस्था दुरुस्त रखने में काबिल अफसरों की तैनाती ने पूरी कर दी। सरकार की ओर से भी प्रदेश को अपराधमुक्त बनाने की कवायद के परिणामस्वरूप पश्चिमी उत्तरप्रदेश में कुख्यातों का पूर्णतः सफाया किया गया। लेकिन पुलिस की निष्पक्षता पर लगातार सवाल उठते रहे। और अपवाद स्वरूप सहारनपुर, मथुरा, और कासगंज जैसी घटनाएं सामने आईं जिसमे सरकार और कानून को नीचा दिखाने के लिए जाति और सांप्रदायिक ताकतों ने एड़ी चोटी का जोर लगाया।
निकाय चुनावों की अप्रत्याशित सफलता
मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ की पहली परीक्षा प्रदेश में होने वाले निकाय में हुई। यह बात और थी कि निकाय चुनाव भी मोदी के चेहरे और संघ के कसमों वादों पर लड़े गए। लेकिन इनमें मिली सफलता ने एक बार फिर से उन्हें सर्वमान्यता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। इन चुनावों में पार्षद की कुल 1299 सीटों में से 596, पालिका अध्यक्ष की 198 में से 70, पालिका सदस्य की 5261 में 921, पंचायत अध्यक्ष की 438 में 100 और पंचायत सदस्य की 5434 में से कुल 666 सीटों पर बीजेपी समर्थित उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।
मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ की पहली परीक्षा प्रदेश में होने वाले निकाय में हुई। यह बात और थी कि निकाय चुनाव भी मोदी के चेहरे और संघ के कसमों वादों पर लड़े गए। लेकिन इनमें मिली सफलता ने एक बार फिर से उन्हें सर्वमान्यता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। इन चुनावों में पार्षद की कुल 1299 सीटों में से 596, पालिका अध्यक्ष की 198 में से 70, पालिका सदस्य की 5261 में 921, पंचायत अध्यक्ष की 438 में 100 और पंचायत सदस्य की 5434 में से कुल 666 सीटों पर बीजेपी समर्थित उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।
असल समस्या की शुरुआत
दरअसल योगी अदित्यनाथ को बीजेपी ने मुख्यमंत्री तो बना दिया। लेकिन प्रशासनिक अनुभवों की कमी झेल रहे योगी के लिए इसे संभालना मुश्किल लगा। और कई मुद्दों पर अखिलेश यादव जैसा ही उन्हें महसूस भी कराया गया। लोस चुनाव के बाद विधानसभा चुनावों में मिली जीत को लेकर संगठन में अतिआत्मविश्वास के बाद पार्टी के विभिन्न काडर के नेताओं के साथ तालमेल बिठाकर सरकार चलाना कठिन चुनौती बन गई। पिछले 20 सालों से सूखी पड़ी बीजेपी में बूथ लेवल के कार्यकर्ता से लेकर बड़े ओहदे के नेता के मन मे अब अपने आप को ढंग से सींच लेने की ख्वाहिश बढ़ी। फलस्वरूप भ्रष्टाचार व दबंगई पर लगाम नही लग पाई और अंदरखाने पूरा सिस्टम इसमें शामिल रहा। साथ ही इसमें जाति और सांप्रदायिक ताकतों ने तड़का लगा दिया।
दरअसल योगी अदित्यनाथ को बीजेपी ने मुख्यमंत्री तो बना दिया। लेकिन प्रशासनिक अनुभवों की कमी झेल रहे योगी के लिए इसे संभालना मुश्किल लगा। और कई मुद्दों पर अखिलेश यादव जैसा ही उन्हें महसूस भी कराया गया। लोस चुनाव के बाद विधानसभा चुनावों में मिली जीत को लेकर संगठन में अतिआत्मविश्वास के बाद पार्टी के विभिन्न काडर के नेताओं के साथ तालमेल बिठाकर सरकार चलाना कठिन चुनौती बन गई। पिछले 20 सालों से सूखी पड़ी बीजेपी में बूथ लेवल के कार्यकर्ता से लेकर बड़े ओहदे के नेता के मन मे अब अपने आप को ढंग से सींच लेने की ख्वाहिश बढ़ी। फलस्वरूप भ्रष्टाचार व दबंगई पर लगाम नही लग पाई और अंदरखाने पूरा सिस्टम इसमें शामिल रहा। साथ ही इसमें जाति और सांप्रदायिक ताकतों ने तड़का लगा दिया।
समाधान से कोसों दूर हैं समस्याएं
पद संभालते ही चुनौतियों से योगी का आमना सामना शुरू हो गया। शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून और ढांचागत परेशानियों से छलनी यूपी की जनता की ख्वाहिशों को पूरा करने में योगी सरकार जी जान से लग गई। सरकार ने कुप्रबंधन की शिकार व निष्क्रिय पड़ी नौकरशाही सुगठित तरीके से सक्रिय कर सुशासन का माॅडल अपनाना लेकिन अफसोस इस कवायद में अपनों ने ही धोखा देना शुरू कर दिया। हलांकि योगी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरह से कड़क फैसले लेने के लिए जाने जाते रहे हैं। बहुत सारे मौकों पर उनके फैसले जनता के सामने आए भी हैं। लेकिन काडर, संगठन और छवि के चक्कर ने योगी को बुरी तरह फांस लिया। और 1 साल साल में बतौर मुख्यमंत्री योगी अदित्यनाथ अखिलेश यादव की जगह पर खड़े हैं, उसी खीझ और सांगठनिक दबाव के साथ।
पद संभालते ही चुनौतियों से योगी का आमना सामना शुरू हो गया। शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून और ढांचागत परेशानियों से छलनी यूपी की जनता की ख्वाहिशों को पूरा करने में योगी सरकार जी जान से लग गई। सरकार ने कुप्रबंधन की शिकार व निष्क्रिय पड़ी नौकरशाही सुगठित तरीके से सक्रिय कर सुशासन का माॅडल अपनाना लेकिन अफसोस इस कवायद में अपनों ने ही धोखा देना शुरू कर दिया। हलांकि योगी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरह से कड़क फैसले लेने के लिए जाने जाते रहे हैं। बहुत सारे मौकों पर उनके फैसले जनता के सामने आए भी हैं। लेकिन काडर, संगठन और छवि के चक्कर ने योगी को बुरी तरह फांस लिया। और 1 साल साल में बतौर मुख्यमंत्री योगी अदित्यनाथ अखिलेश यादव की जगह पर खड़े हैं, उसी खीझ और सांगठनिक दबाव के साथ।
उपचुनाव से मिला सबक
गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में मिली करारी हार की कई वजहें हैं जिनमें से एक यह भी है कि गोरखपुर में ब्राह्मणों और राजपूतों के बराबर वोट हैं। चर्चाओं के मुताबिक योगी आदित्यनाथ कतई नहीं चाहते थे कि गोरखपुर का नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में जाए. योगी के सामने अपनी सीट बचाने से ज्यादा अहम था गोरखपुर में अपने 'मठ' की ताकत को बचाना। इसके बावजूद उपेंद्र दत्त शुक्ल को गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। चूंकि आदेश अमित शाह का था, तो इसके सीधे विरोध में जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लेकिन अंदरखाने साजिशों और दुरभिसंधियों का दौर शुरू हो गया. बतौर सीएम योगी ने जमकर प्रचार किया, लेकिन मठनिष्ठ योगी के लोग निष्क्रिय हो गए, साथ ही मुख्यमंत्री को सीट जीतने का दावा करते हुए भ्रमित किया गया। पूर्वांचल सहित प्रदेश में हर कोई जानता है कि गोरखपुर में बीजेपी का मतलब योगी हैं। लेकिन योगी के लिए मठ लोगों में मठ की स्वीकार्यता ज्यादा मायने रखति है बजाए पार्टी या संगठन के। ऐसे में किसी भी उम्मीदवार के लिए मठ की मर्जी के बिना जीत हासिल करना टेढ़ी खीर है। इस बार तो आलम ये रहा कि बूथों पर बीजेपी के एजेंट तक मौजूद नहीं थे. इसके उलट सपा और बसपा के समर्थक जोश से लगे हुए थे, जिसका परिणाम सबके सामने है।
गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में मिली करारी हार की कई वजहें हैं जिनमें से एक यह भी है कि गोरखपुर में ब्राह्मणों और राजपूतों के बराबर वोट हैं। चर्चाओं के मुताबिक योगी आदित्यनाथ कतई नहीं चाहते थे कि गोरखपुर का नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में जाए. योगी के सामने अपनी सीट बचाने से ज्यादा अहम था गोरखपुर में अपने 'मठ' की ताकत को बचाना। इसके बावजूद उपेंद्र दत्त शुक्ल को गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। चूंकि आदेश अमित शाह का था, तो इसके सीधे विरोध में जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लेकिन अंदरखाने साजिशों और दुरभिसंधियों का दौर शुरू हो गया. बतौर सीएम योगी ने जमकर प्रचार किया, लेकिन मठनिष्ठ योगी के लोग निष्क्रिय हो गए, साथ ही मुख्यमंत्री को सीट जीतने का दावा करते हुए भ्रमित किया गया। पूर्वांचल सहित प्रदेश में हर कोई जानता है कि गोरखपुर में बीजेपी का मतलब योगी हैं। लेकिन योगी के लिए मठ लोगों में मठ की स्वीकार्यता ज्यादा मायने रखति है बजाए पार्टी या संगठन के। ऐसे में किसी भी उम्मीदवार के लिए मठ की मर्जी के बिना जीत हासिल करना टेढ़ी खीर है। इस बार तो आलम ये रहा कि बूथों पर बीजेपी के एजेंट तक मौजूद नहीं थे. इसके उलट सपा और बसपा के समर्थक जोश से लगे हुए थे, जिसका परिणाम सबके सामने है।
बदलते परिदृश्य से तालमेल जरूरी
कट्टर हिंदुत्ववादी छवि और संगठन के फैसलों के साथ संवैधानिक पद का निर्वहन कर रहे योगी ने तीनों जगहों पर समयानुसार तर्कसंगत फैसले लिए हैं। लेकिन अब बदलते राजनीतिक परिदृश्य में योगी को इन सबसे तालमेल बिठाना मुश्किल होगा, अफवाहों का बाजार गर्म है कि यूपी में सांगठनिक और संवैधानिक बदलाव निश्चित है, लेकिन अब तक अन्य शासित राज्यों में बीजेपी की मुख्यमंत्रियों लेकर अपनाई गई नीति इन अफवाहों पर विराम लगाती है। फिर भी अगले साल होने वाले आम चुनावों से पहले योगी को गोरखपुर सहित पूरे प्रदेश में अपनी जनस्वीकार्यता को और मजबूत करना होगा, साथ ही इसमें पार्टी का सहयोग जरूरी है अगर बीजेपी का आम चुनाव 2019 में यूपी में सीट जीतने का लक्ष्य एक बार फिर से 70+ है।
कट्टर हिंदुत्ववादी छवि और संगठन के फैसलों के साथ संवैधानिक पद का निर्वहन कर रहे योगी ने तीनों जगहों पर समयानुसार तर्कसंगत फैसले लिए हैं। लेकिन अब बदलते राजनीतिक परिदृश्य में योगी को इन सबसे तालमेल बिठाना मुश्किल होगा, अफवाहों का बाजार गर्म है कि यूपी में सांगठनिक और संवैधानिक बदलाव निश्चित है, लेकिन अब तक अन्य शासित राज्यों में बीजेपी की मुख्यमंत्रियों लेकर अपनाई गई नीति इन अफवाहों पर विराम लगाती है। फिर भी अगले साल होने वाले आम चुनावों से पहले योगी को गोरखपुर सहित पूरे प्रदेश में अपनी जनस्वीकार्यता को और मजबूत करना होगा, साथ ही इसमें पार्टी का सहयोग जरूरी है अगर बीजेपी का आम चुनाव 2019 में यूपी में सीट जीतने का लक्ष्य एक बार फिर से 70+ है।