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चुनावों में ही क्यों याद आते हैं दलित




  अभी हम अपने लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन में मानसून सत्र के उद्घाटन के बाद देश के विकास के मुद्दों को लेकर जनप्रतिनिधियों के बीच चर्चा की शुरूआत कर ही रहे थे। इसी समय भाजपा के प्रदेश स्तर के नेता और अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश बीजेपी उपाध्यक्ष बनाए गए दयाशंकर सिंह ने उत्तरप्रदेश की दलित नेता और बीएसपी सुप्रीमों मायावती पर एक अभद्र टिप्पणी कर दी। इस बात को लेकर देश और उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूचाल आ गया। बीएसपी अध्यक्ष मायावती खुद राज्यसभा में बहस करने आ गयी। इससे भी बड़ा तमाशा प्रदेश की राजधानी लखनऊ के हजरतगंज चैराहे पर देखने को मिली। पूरे प्रदेश के बीएसपी कार्यकर्ताओं ने जमकर नारेबाजी और प्रदर्शन किया। दयाशंकर सिंह के साथ उनके परिवार वालों पर भी अभद्र टिप्पणी की। खैर उस मामले को लेकर मायावती और दयाशंकर सिंह की पत्नी दोनो में जमकर मीडिया वार हुआ। ताजा जानकारी के अनुसार दयाशंकर सिंह को अपना पद भी गंवाना पड़ा और वह गिरफ्तार भी हो गए।  




दो नेताओं के बीच की लड़ाई को हमारी भारतीय मीडिया ने दलित बनाम राज्य, केन्द्र सरकार कर दिया। जो भी हुआ वह एक सियासी ड्रमें से ज्यादा कुछ नही लगा। लेकिन एक बात जो कि सबके दिमाग में चक्कर लगाये जा रही है कि आखिर इन लोगों को दलितों की याद तभी क्यों आती है। जबकि किसी राज्य में चुनाव होने होते हैं या फिर संसद में कोई सत्र चल रहा होता है। इन्हे दलितों की याद तब क्यों नही आती जब हजारों की संख्या में कुपोषण से पीड़ित दलित बच्चों का शारीरिक विकास नही हो पता। यह दलित प्रेम तब कहा चला जाता है वित्तीय अभाव में हजारों बच्चों का बचपन शुरू होने से पहले खत्म हो जाता है।  जब जागरूकता के अभाव में सैकड़ों दलित अस्पताल पहुंचने से पहले ही झाड़फूंक के चक्कर में पड़कर अपनी जान गवां देते हैं। जब सैकड़ों दलित लड़किया पैसे के लिए सरे बाजार बेंच दी जाती हैं। इसके कुछ बहुत ही सटीक कारण हैं। आने वाले 2017 में भारत के जनसंख्या के मामले में सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं। प्रदेश में ओबीसी 50 प्रतिशत, मुसलमान 19 प्रतिशत, सवर्ण 17 प्रतिशत व दलित 20 प्रतिशत हैं। प्रदेश में वर्तमान समय में समाजवादी पार्टी की सरकार है। प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव कुर्सी पर पदासीन हैं। हलांकि वे एक युवा हैं और युवाओं जैसी सोंच रखते हैं पर अपने पिता के जमाने वाले मंत्रिमंडल और पार्टी के लोगों के साथ सामंजस्य बैठाने में वे सफर के शुरूआत से ही नकाम रहे। शुरू में जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनके लोक लुभावन वादों से सबके बीच एक गहरी आशा की किरण ने जन्म लिया। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद जिस तरह से उनके फैसले बदलने शुरू हुए वह कई सवाल खड़े करते गए। चाहे वह पुलिस प्रशासन से जुड़ा मुद्दा हो, अपराध हों, मुजफ्फरनगर के दंगें हो, या फिर दादरी कांड में जल्दबाजी से किए गए फैसलें हां। हर जगह एक ही बात सामने आयी कि पिता ने पुत्र के पांव अपनी खेती में जमाने के लिए बैलों से जुता हुआ हल तो पकड़ा दिया पर नाथ अभी भी अपने ही हाथ में रख रखे हैं। इन सब मामलों के फलस्वरूप सपा की मुस्किलें बढ़ चुकी हैं।
 सवर्ण जनाधार पार्टी पहले से ही खो चुकी है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उसकी जो मुस्लिम विरोधी छवि बनी वह अभी भी बरकरार है। ओबीसी समुदाय में असंतोष का भाव होने से उसे अब दलित प्रेम दिखाने की जरूरत पड़ रही है। खास कर उस समय में जब कि वह अपने प्रदेश में सत्तासीन होने के बावजूद भी केवल पांच लोकसभा सीटें जीत सकी हैं। ऐसे में उसका दलित प्रेम लाजिमी है। अब बारी भाजपा की आती है तो अभी भी वह उप्र को लेकर आश्वस्त नही है। क्योंकि प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने कार्यकाल के अंतिम साल में विकास परियोजनाओं को पूरा करने के लिए जिस तरह से कमर कस ली हैं एक साल का समय बहुत होता है। रोहित वेमुला को लेकर भाजपा की जो किरकिरी हुई और 2012 के विधान सभा चुनाओं में हार के बाद उसे यह लगने लगा था कि केवल ओबीसी और सवर्ण वोटों से वह प्रदेश में सरकार नही बना पायेगी। तो उसे भी दलित प्रेम दिखाने का अवसर मिल गया और फलस्वरूप अब पार्टी का उप्र प्रदेश अध्यक्ष पिछड़ी जाति के नेता केशव प्रसाद मौर्य को बनाया गया। और दलितों को अपनी तरफ रिझाने के पूरे तामझाम किए जा रहे हैं। इन सबके बीच बीच कांग्रेस ने भी कमर कस ली और उसने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के साथ मिलकर प्रदेश मेें अपना डेरा डाल दिया। कांग्रेस 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद दिन ब दिन गड्ढे में गिरती रही। दिन प्रतिदिन उसके मंत्री घोटालों में फंसते रहे। पर अब वह एक नये कलेवर के साथ मैदान में खड़ी है। और अपनी खोई हुई जमीन पाने को बेताब है। हलांकि यह बात अलग है कि कांग्रेस की राष्ट्रªीय अध्यक्ष व उपाध्यक्ष दोनों यूपी से ही सांसद हैं पर यहां विधानसभा के चुनाव हैं हवा कुछ और हैं। अब बारी आती है बीएसपी की तो मायावती फिर से सत्ता पाने को बेकरार हैं। सरकार के कई मंत्रियों पर घोटालों के आरोप लगे। 

2012 में जब सपा ने विस चुनावों से प्रदेश की 403 में से 224 सीटें जीतकर धमाकेदार वापसी की तब उसे 29 फीसदी वोट मिले जबकि उसकी प्रतिद्वंदी बसपा को सत्ता में रहते हुए 26 फीसदी वोट मिले भाजपा 15 फीसदी और कांग्रेस 12 फीसदी वोट हासिल कर सकी। लेकिन जब 2014 में लोकसभा के चुनाव हुए तो आश्चर्यजनक रूप से भाजपा को 43 प्रतिशत, सपा को 22 प्रतिशत वोट मिले। पर बसपा जिसके कि 20 प्रतिशत वोट परंपरागत माने जाते रहे वह अपना खाता भी नही खोल पायी और पार्टी के राष्ट्रªीय स्तर पर बने रहने की संभावना भी खत्म होते दिखी। लेकिन अब उसे अपना खोया जनाधार वापस पाने की पूरी उम्मीद है। और इसी को लेकर यह दलित प्रेम अब गहराता चला जा रहा है। अब बात अगर दलित की करें तो जिस प्रदेश की वह मुख्यमंत्री चार बार रही। हमेशा से अपने आप को दलितो का मसीहा मानती रही। उन्ही के शासन में जब दलितों की दशा नही सुधरी तो फिर यह दलित प्रेम क्यांें। कहने का मतलब यह है कि कश्मीर की तरह से दलित भी इन राजनेताओं के खाने कमाने का एक जरिया बन चुके हैं। दरअसल दलित हमारी सोच और हमारी मानसिकता में हैं। ज्योतिबाफूले, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और काशीराम से लेकर मायावती तक हमेशा दलितों के उद्धार की बात करते रहे। पर कभी उन्हाने देश में बनी हुई दलित मानसिकता को खत्म करने पर बल नही दिया। और नतीजा आज सामने है कि इतने सालों के बाद भी वे वहीं पर खड़े रह गए। आरक्षण भी उन्हे ससम्मान की जिंदगी नही दिला सका। बल्कि उसने दलित, पिछड़े और सामान्य वर्ग के बीच बन रही खाई को और गहरा कर दिया। बचपन से ही हमें एक बात सिखाई जा रही है कि बाबा साहब ने दलितों का उद्धार किया पर कभी यह नही बताया गया कि उन्होने दलितों की मानसिकता को बदलने में क्या योगदान दिया। 
 मायावती यूपी में चार बार मुख्यमंत्री रही लेकिन उन्हे भी दलित तभी याद आये जब चुनाव नजदीक आया। अपने पर अभद्र टिप्पणी मिली तो हंगामा शुरू कर दिया लेकिन जागरूकता, शिक्षा, और पैसे के अभाव की वजह से घर के बाहर काम करने वाली हजारो दलित बहू-बेटियों का मानसिक व शारीरिक शोषण किया जाता है उसका कोई उत्तर है उनके पास। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते समय उनके शासन काल में हरिजन एक्ट की सबसे ज्यादा चर्चा हुई पर एक्ट बनाने से क्या दलितों पर अत्याचार कम हो गये। क्या उनकी सोच में कुछ बदलाव आया। शायद नही हां यह जरूर हुआ कि इस एक्ट की वजह से उनकी बेरोजगारी और बढ़ गयी। लोग उन्हे अपने यहां पर काम देने से डरने लगे।
 जागरूकता के अभाव में वे अभी भी उसी चैराहे पर खड़े हैं जहां पर कोई भी पार्टी का कार्यकर्ता आकर उन्हे आम की जगह इमली बताकर चला जाता है। और उनके सामने उस पर विश्वास जताने के अलावा कोई चारा नही रहता है। आने वाले यूपी चुनाव में दलित किस पार्टी को ज्यादा वोट देते या किसकी सरकार बनती यह अलग मसला है। पर सच में अगर कोई दलितों के लिए काम करना चाहता है तो सरकार के साथ दलित प्रेम लिए जनप्रतिनिधियों को चाहिए कि दलितो को जागरूक करे, उन्हे स्कूल जाने पर जोर दे, उनके अन्दर यह भावना पैदा करे कि वह भी समाज का एक अभिन्न अंग हैं। बाकि वातानुकूलित कार में बैठकर दौरे करने, बंद कमरों में योजनाऐं बनाने और आरक्षण बढ़ाने से कुछ नही होने वाला है। जब तक कि उनकी दलित वाली मानसिकता को खत्म करके समाज के एक जिम्मेदार वर्ग होने की मानसिकता का विकास न किया जाए। 
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