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सहिष्णुता बनाम विकास...........

 

हम सभी जानते है कि सहिष्णुता हमें यही सिखाती है कि हर धर्म को समान भाव से मानना अपनाना, सभी धर्म, संप्रदाय के लोगों के बीच समानता का व्यवहार करना और उन्हे परस्पर देश के प्रति समर्पण भाव रखने हेतु संगठित करना, उनके अन्दर एकता, अखण्डता का भाव उत्पन्न करना और समाज के सभी धर्मों का सहयोग लेकर विकास के पथ पर चलना।
     लेकिन पिछले कुछ दिनों में हमारी पवित्र, स्नेह सलिला, सवधर्म समभाव का विचार रखने वाली, और विशिष्ट विविधताओं से भरी पड़ी भारत भूमि में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं। उनसे हमारा सामाजिक माहौल कुछ असंतुष्ट सा हो गया। हम समाज के कुछ आसामाजिक तत्वों के हाथों में अपने विचारों की, भावनाओं की, कर्तव्यों की बागडोर दे बैठे और उनके कारण हमें काफी विवादास्पद स्थिति का सामना करना पड़ा। इन घटनाओं का असर हमारे भारतीय समाज के हर क्षेत्र, हर तबके और हर धर्म के लोगों पर पड़ा। और इसकी प्रतिक्रिया हमारे सामने पुरस्कार वापसी, विवादास्पद बयान जैसी घटनाओं के रूप में हमारे सामने आया।
          
  इसी समय हमारे लोकतंत्र का घर कहे जाने वाले संसद में एक त्योहार की तरह आयोजित बजट सत्र का समय आ गया, कुछ लोगों ने यहां तक कह दिया कि हम सदन नही चलने देंगे, लेकिन एक
बात जो हर एक भारतीय के मन में गंभीर रूप से चोट करती है, वह यह है कि आखिर इन समाज के ठेकेदारों को, पहरेदारों को इन मुद्दों को उठाने के लिए वही समय क्यों उपयुक्त लगता है, जब हम देश के सर्वांगीण विकास, सुरक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठे होते हैं।
          यह एक विचारणीय प्रश्न है, लेकिन इसके पीछे की मनोभूमि बहुत ही गहरी व विस्तृत है। भारत की आम जनता जब लोकतन्त्र के महापर्व पर अपनी भागीदारी करती है तो वह यह नही देखती है कि कहां पर असहिष्णुता फैल रही है या कहां पर किसी विशेष धर्म को बढ़ावा दिया जा रहा है। वह तो उस समय केवल कुछ आशाएं जो स्वास्थ्य, सुरक्षा, सुविधा, शिक्षा के सर्वांगीण विकास से जुड़ी होती है। उसे सोंचकर भागीदारी करती है, पर वही जनप्रतिनिधि जब चुनाव जीतकर संसद में पहुंचते हैं तो वे विकास नाम का शब्द ही भूल जाते हैं। उस समय उनके अन्दर पार्टी, उसकी नीतियां, और अकारण बयानबाजी के अलावा और कुछ नही आ पाता है।
      आज हमारे भारत की लगभग एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे तंगहाली और मुफलिसी की जिंदगी जीने को मजबूर है, पर हम अपने जनप्रतिनिधियों के प्रति बहुत ही अमीर हैं। हमारी सरकार वेतन, फंड और भत्तों के नाम पर हर साल इनके ऊपर करोड़ों रूपये खर्च करती है, पर कुछ अपवाद स्वरूप जनप्रतिनिधियों को छोड़ दिया जाए तो बहुतों को यह भी नही पता होता है कि अपने क्षेत्र को विकसित करने के लिए उनके पास कोई स्पष्ट योजना भी है या नही, हां यह जरूर पता होता है कि लोग किस तरह के बयान पर ज्यादा आकर्षित होते हैं या उनके किस भाषण को हमारे लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में स्थापित मीडिया ज्यादा महत्व देता है।
 

  आज अगर किसी भी नेता से यह पूछा जाए कि उसकी अपनी पार्टी या सरकार द्वारा चलाई जा रही सारी योजनाओं को अपनी याददाश्त के आधार पर बता दे तो वह शायद ही सबकी पूर्ण जानकारी रखता हो, पर अगर उसी से यह पूछा जाए कि पिछले साल किस नेता या जनप्रतिनिधि के बयान या भाषण से देश के सामाजिक सौहार्द को ठेस पहुंची थी, तो वह बिना एक पल की देरी किए तुरंत बता देगा। विकास के इस मुद्दे पर हमारा और हमारे समान अन्य लोगों का भी रूख बहुत सही नही हैं। हमारी गलती वहीं शुरू हो जाती है जबकि हम अपने जनप्रतिनिधि, उनके विचारों के आधार पर नही अपितु उनके तड़क भड़क के आधार पर चुनते हैं।
      हम यह भूल जाते हैं कि वे आज जो पैसे फूंक रहे हैं कल पद व कुर्सी मिल जाने पर वसूल करेंगे। एक बार सत्ता में आने के बाद वे सामाजिक विकास से ज्यादा स्वविकास को महत्व देने लगते हैं। वे सदन में शामिल होने से पहले ली गई शपथ, वादे सब भूल जाते हैं, और स्वयं को आम जनता का भगवान समझ बैठते हैं। जब चाहे वे सदन जाते हैं, जब चाहे वे अपने क्षेत्र में घूमते हैं। सब कुछ अपनी मनमानी के हिसाब से करते हैं।
और तो और इन सब मामलों में हमारी युवा पीढ़ी भी कहीं पीछे नही रहती है। वह इन सब लोगों से आगे जाने की कोशिश करती है। अभी ताजा मामले को लें तो हम पाते हैं कि हमारे देश के प्रमुख शिक्षण संस्थानों में एक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, जो कि शोध, शिक्षा के मामलों में हमेशा आगे रहता , आज राजनीति का गढ़ बन चुका है। संविधान में दी गई अभिव्यक्ति एवं भाषण की स्वतंत्रता का आज वहां पर भरपूर लाभ उठाया जा रहा है। एक तरफ जहां अपने देश को दुश्मनों से बचाने के लिए हमारे जवान शियाचीन जैसी ठंडी जगह पर रक्षा करते हुए शहीद हो रहे हैं वही दूसरी तरफ हमारे देश के कुछ प्रबुद्ध, कुछ आने वाले भविष्य के स्तंभ, और कुछ छात्र नेता, हमारे देश के लोकतंत्र के घर संसद भवन पर हमला करने वाले आतंकी समूह के मास्टर माइंड अफजल गुरू की बरसी मना रहे हैं, भारत जिसकी तुलना हम अपनी मां से करते हैं उसके विरोध में नारे लगा रहे हैं। और सबसे बड़ी बात है कि ऐसी खबरों को रोकने के बजाए हमारी भारतीय व्यवसायिक मीडिया उनको और मिर्च मसाला लगाकर बढ़ा चढ़ाकर दिखा रही है। अब एक सवाल उठता है कि जितने भी लोग अफजल गुरू को शहीद मानते हैं वे क्या हमारे देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था उच्चतम न्यायालय, देश के महामहिम राष्ट्रपति से ज्यादा समझदार है। क्यूंकि हमारे देश में अगर बिना मुकदमा चलाए फांसी दी जाती या किसी को सजा दी जाती तो आज भारत पर हमले करने से पहले हजार बार पहले ये आतंकी सोंचते। एक सवाल और मंडराता है कि जब हमारे देश के जवान सियाचीन जैसी सीमा पर शहीद होते हैं तो कोई शोकसभा नही होती है, कोई बरसी का आयोजन नही करता, लेकिन एक आतंकी जो कि हमारी सर्वोच्च न्यायिक संस्था द्वारा अपराधी घोषित किए जाने पर मौत की सजा का हकदार हुआ, उसकी बरसी मनाने के लिए आयोजन करते है। 

  यह सब जनता झेलती है पर जब वे अपने मात्र कुछ वाक्यों के द्वारा समाज को नुकसान पहुंचाते हैं, तो बुरा लगता है। कुछ आसमाजिक तत्व उनके विचारों, भाषणों के फलस्वरूप बहुत ही गलत तरीके से प्रतिक्रिया करते है। दंगे फैलाते हैं, आंदोलन करते हैं, सदन नही चलने दिया जाता है, हड़ताल करते हैं, लेकिन वह यह नही समझते कि वे नुकसान किसका कर रहे हैं, वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अपना ही नुकसान करते हैं। जिसका बाद में वे घाटा भरते भी वह भी अप्रत्यक्ष रूप में। नेता बयान देकर चुपचाप अपने घरों में बैठ जाते हैं, और तमाशा देखते हैं।और फिर शुरू होता है एक ऐसा नंगा नाच जिसका शिकार सरकारी कार्यालय, बसें, रेल आदि होते हैं। अपने ही देश, समाज के सार्वजनिक संसाधनों का विनाश कर के हम भला किस विकास की ओर अग्रसारित होते हैं। हम अपने आप को आज भी विकासशील देशों की श्रेणी में ही रखते है। लेकिन जिन लोगों को यह विकास करना है वही अगर इस तरह के कार्य करने लगे तो हम विकास के रास्ते में कहां पर खड़े हैं, अखिर हम सब कुछ मिटाकर विकास के पथ पर अग्रसर कैसे रह सकते हैं, यह एक विचार करने योग्य कथन है।
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